Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 52 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 52/ मन्त्र 12
    ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः देवता - मरुतः छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    छ॒न्दः॒स्तुभः॑ कुभ॒न्यव॒ उत्स॒मा की॒रिणो॑ नृतुः। ते मे॒ के चि॒न्न ता॒यव॒ ऊमा॑ आसन्दृ॒शि त्वि॒षे ॥१२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    छ॒न्दः॒ऽस्तुभः॑ । कु॒भ॒न्यवः॑ । उत्स॑म् । आ । की॒रिणः॑ । नृ॒तुः॒ । ते । मे॒ । के । चि॒त् । न । ता॒यवः॑ । ऊमाः॑ । आ॒स॒न् । दृ॒शि । त्वि॒षे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    छन्दःस्तुभः कुभन्यव उत्समा कीरिणो नृतुः। ते मे के चिन्न तायव ऊमा आसन्दृशि त्विषे ॥१२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    छन्दःस्तुभः। कुभन्यवः। उत्सम्। आ। कीरिणः। नृतुः ते। मे। के। चित्। न। तायवः। ऊमाः। आसन्। दृशि। त्विषे ॥१२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 52; मन्त्र » 12
    अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्याः कथं वर्त्तेरन्नित्याह ॥

    अन्वयः

    ये के चिच्छन्दःस्तुभ उत्समिव कुभन्यव ऊमा दृशि मे त्विष आसँस्ते नृतुरिवाऽऽकीरिणस्तायवो न स्युः ॥१२॥

    पदार्थः

    (छन्दःस्तुभः) ये छन्दोभिः स्तोभनं स्तवनं कुर्वन्ति (कुभन्यवः) आत्मनः कुभनमुन्दनमिच्छवः (उत्सम्) कूपमिव (आ) समन्तात् (कीरिणः) विक्षेपकाः (नृतुः) नर्त्तक इव (ते) (मे) मम (के) (चित्) अपि (न) (तायवः) स्तेनाः (ऊमाः) सर्वस्य रक्षणादिकर्त्तारः (आसन्) भवेयुः (दृशि) दर्शके (त्विषे) शरीरात्मदीप्तिबलाय ॥१२॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! येऽन्येषां विक्षेपं तायवं चाऽकृत्वा तृषातुराय जलमिव शान्तिप्रदा भूत्वा सर्वेषां शरीरात्मबलं वर्धयन्ति ते एवाप्ता भवन्ति ॥१२॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्य कैसे वर्त्तें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    जो (के) कोई (चित्) भी (छन्दःस्तुभः) छन्दों से स्तुति करनेवाले (उत्सम्) कूप के सदृश (कुभन्यवः) अपने को आर्द्रपन की इच्छा करते हुए (ऊमाः) सब के रक्षण आदि करनेवाले (दृशि) दर्शक में (मे) मेरे (त्विषे) शरीर और आत्मा के प्रकाश और बल के लिये (आसन्) होवें (ते) वे (नृतुः) नाचनेवाले के सदृश (आ) सब ओर से (कीरिणः) विक्षेप व्याकुल करनेवाले (तायवः) चोर जन (न) न होवें ॥१२॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जो अन्य जनों के विक्षेप और चोरी न करके जैसे पिपासा से व्याकुल के लिये जल वैसे शान्ति के देनेवाले होकर सब के शरीर और आत्मा के बल को बढ़ाते हैं, वे ही श्रेष्ठ यथार्थवक्ता होते हैं ॥१२॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    कूपवत् राजा वा प्रभु का आश्रय ।

    भावार्थ

    भा०- ( ये ) जो मेरे राष्ट्र में जिस प्रकार (कुभन्यवः) जल के इच्छुक जन ( उत्सम् आ नृतुः ) कूप को प्राप्त करते हैं उसी प्रकार (छन्दस्तुभः ) वेद मन्त्रों का उपदेश करने वाले ( कीरिणः ) स्तुतिकर्ता जन भी ( उत्सम् आ ) उत्तम पद के भोक्ता राजा वा प्रभु को प्रसन्नता पूर्वक प्राप्त करें । ( ते ) वे ( चित् ) कोई भी हों तो भी वे ( तायवः न ) चोरों के समान न होकर ( दृशि त्विषे च ) यथार्थ दर्शन करने और तेज की वृद्धि के लिये वे (ऊमाः) उत्तम रक्षक हों। इसी प्रकार वीर पुरुष भी (छन्द:-स्तुभः ) युद्ध को नाना गति से शत्रु दल को मारने वाले, (कीरिणः) उखाड़ने वाले, ( कुभन्यवः ) धनार्थी हों वे कूपवत् गंभीर नाम को प्राप्त कर प्रसन्न हों ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः ॥ मरुतो देवताः ॥ छन्द:- १, ४, ५, १५ विराडनुष्टुप् । २, ७, १० निचृदनुष्टुप् । ६ पंक्तिः । ३, ९, ११ विराडुष्णिक् । ८, १२, १३ अनुष्टुप् । १४ बृहती । १६ निचृद् बृहती । १७ बृहती ॥ सप्तदशर्चं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    न तायवः

    पदार्थ

    [१] (छन्दः स्तुभः) = ज्ञान की वाणियों के द्वारा सब वासनारूप शत्रुओं को रोक देनेवाले [स्तुभ् = stop] (कुभन्यवः) = शरीर को शक्ति से सिक्त करनेवाले [कुभिरुन्दवकर्मा], (उत्सं कीरिणः) = स्तवन करनेवाले ये (मरुत् उत्सम्) = उस ज्ञान व आनन्द के स्रोत प्रभु को (आनृतुः) = हमारे जीवन में [आनीतवन्त: सा० ] लाते हैं। हम इन मरुतों की कृपा से प्रभु का दर्शन करनेवाले होते हैं। [२] (ते) = वे प्राण (मे) = मेरे लिये (केचित्) = अवर्णनीय-अद्भुत (ऊमाः) = रक्षक हैं । (न तायवः) = ये चोर नहीं हैं, हमारे जीवन के प्रहरी हैं। ये प्राण (दृशि) = ज्ञान के निमित्त होते हैं, प्रभु दर्शन करानेवाले होते हैं तथा (त्विषे आसन्) = दीप्ति के लिये, तेजस्विता के लिये होते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राण ज्ञान वृद्धि द्वारा वासनाओं को रोकते हैं। शरीर को ये शक्ति से सिक्त करते हैं। हमें स्तवन की वृत्तिवाला बनाते हैं। इस प्रकार ये हमें ज्ञानी व तेजस्वी बनानेवाले होते हैं।

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! जसे तृष्णेने व्याकूळ झालेल्यांना जल शांत करते. तसे जे इतरांना भ्रमित न करता व चोरी न करता शांत करणारे असतात. सर्वांच्या शरीर व आत्म्याचे बल वाढवितात तेच श्रेष्ठ आप्त असतात. ॥ १२ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Poetic celebrities, some of them, thirsting for self-expression, burst out in lyrics and sing and dance in divine ecstasy from the depth of the heart. Some of them like streams profusely flowing for us are protectors and saviours, and some of them shine in the sight of the beholder because shine they must by nature.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should men deal with one another is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Let those persons who praise God with Vedic mantras, be the protectors of all. Let them be like the well for the persons desirous of bath, and may they be helpful for my sight, for the strength and lustre of body and soul. Let them no be like lustre dancers, scattering evil thoughts or like thieves.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons are called Aptas - absolutely truthful and trustworthy persons, who do not disturb the peace of other's minds and never commit theft, rather they are like the well for a thirsty person and give peace and increase the strength of body and soul.

    Translator's Notes

    Not being able to understand the importance of the mantra, Griffith has remarked in the footnote. The stanza is difficult and obscure. The Hymn of the Rigveda p. 52.

    Foot Notes

    (छन्द: स्तुभः ) ये छन्दोभिः स्तोभनं स्तवनं कुर्वन्ति । = Those who praise God with the Vedic mantras. (कुभन्यवः) आत्मन: कुंभनमुन्दनमिच्छ्वः । कु-विक्षेपे (तुदा० ) ष्टुभ-स्तम्भे धारणे । अन्न स्तवनार्थंकः । अनेकार्था घातवः इति-नियमात् । स्तुतिद्वारापि धारणमेव हृदि परमात्मने = Desirlng wetting or bath. (कीरिणः) विक्षेपका:। = Disturbers (of the peace of mind) scatterers of evil thoughts.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top