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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 52 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 52/ मन्त्र 14
    ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः देवता - मरुतः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    अच्छ॑ ऋषे॒ मारु॑तं ग॒णं दा॒ना मि॒त्रं न यो॒षणा॑। दि॒वो वा॑ धृष्णव॒ ओज॑सा स्तु॒ता धी॒भिरि॑षण्यत ॥१४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अच्छ॑ । ऋ॒षे॒ । मारु॑तम् । ग॒णम् । दा॒ना । मि॒त्रम् । न । यो॒षणा॑ । दि॒वः । वा॒ । धृ॒ष्ण॒वः॒ । ओज॑सा । स्तु॒ताः । धी॒भिः । इ॒ष॒ण्य॒त॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अच्छ ऋषे मारुतं गणं दाना मित्रं न योषणा। दिवो वा धृष्णव ओजसा स्तुता धीभिरिषण्यत ॥१४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अच्छ। ऋषे। मारुतम्। गणम्। दाना। मित्रम्। न। योषणा। दिवः। वा। धृष्णवः। ओजसा। स्तुताः। धीभिः। इषण्यत ॥१४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 52; मन्त्र » 14
    अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 10; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

    अन्वयः

    हे ऋषे ! त्वं योषणा मित्रं न मारुतं गणमच्छ प्राप्नुहि वा यथा दिवो धृष्णवः स्तुता धीभिरोजसा दाना मारुतं गणमिषण्यत तथा सर्वे प्राप्नुवन्तु ॥१४॥

    पदार्थः

    (अच्छ) (ऋषे) विद्वन् (मारुतम्) मरुतां मनुष्याणामिमम् (गणम्) समूहम् (दाना) दानानि (मित्रम्) सखायम् (न) इव (योषणा) स्त्री (दिवः) कामयमानाः (वा) (धृष्णवः) धृष्टाः प्रगल्भा दृढनिश्चयाः (ओजसा) बलादिना (स्तुताः) प्रशंसिताः (धीभिः) प्रज्ञाभिः (इषण्यत) प्राप्नुवन्ति ॥१४॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। सर्वेऽध्यापका अध्येतारश्च मित्रवद्वर्त्तित्वा वाय्वादिपदार्थविद्यां सङ्गृह्णन्तु ॥१४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (ऋषे) विद्वन् ! आप (योषणा) स्त्री और (मित्रम्) मित्र के (न) सदृश (मारुतम्) मनुष्यसम्बन्धी (गणम्) समूह को (अच्छ) उत्तम प्रकार प्राप्त हूजिये (वा) वा जैसे (दिवः) कामना करते हुए (धृष्णवः) धृष्ट, प्रगल्भ, दृढ़ निश्चयवाले (स्तुताः) प्रशंसितजन (धीभिः) बुद्धियों और (ओजसा) बल आदि से (दाना) दानों को देकर मनुष्यसम्बन्धी समूह को (इषण्यत) प्राप्त होते हैं, वैसे सब प्राप्त हों ॥१४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। सम्पूर्ण अध्यापक और पढ़नेवाले मित्र के सदृश परस्पर वर्त्ताव करके वायु आदि पदार्थों की विद्या का अच्छे प्रकार ग्रहण करें ॥१४॥

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    विषय

    उनके साथ उत्सुकता से भेंट करने का उपदेश ।

    भावार्थ

    भा०-( योषणा मित्रं न ) जिस प्रकार स्त्री अपने स्नेह करने वाले प्रिय पति के अभिमुख होती है उसी प्रकार हे ( ऋपे ) विद्वन् ! तू ( दाना ) आदर सत्कार पूर्वक अन्न वस्त्र आदि नाना दान देने योग्य पदार्थों सहित ( मारुतं गणं ) उत्तम विद्वान् वा वीर जनों के समूह को भी ( अच्छ ) आदर से प्राप्त कर । हे ( धृष्णवः ) बल बुद्धि से प्रतिस्पर्धी का घर्षण करने हारे (वा) और (दिवः) विजय के उत्सुक एवं धनादि की कामना करने वाले वीर विद्वान् पुरुषो ! आप लोग (धीभिः) उत्तम स्तुतियों, ज्ञानों और कर्मों द्वारा ( स्तुताः ) प्रशंसित, उपदिष्ट वा शिक्षित होकर (ओजसा) बल पराक्रम द्वारा ( दाना इषण्यत ) दान दिये गये धनों को प्राप्त किया करो । अध्यात्म में-हे विद्वन् ! तू (मारुतं गणं) प्राण गण को मित्रवत् अन्नादि दोनों से पुष्ट कर । हे प्राणगण ! बलवान् होकर तुम बुद्धि, कर्म से प्रयुक्त होकर ग्राह्य विषय ग्रहण करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः ॥ मरुतो देवताः ॥ छन्द:- १, ४, ५, १५ विराडनुष्टुप् । २, ७, १० निचृदनुष्टुप् । ६ पंक्तिः । ३, ९, ११ विराडुष्णिक् । ८, १२, १३ अनुष्टुप् । १४ बृहती । १६ निचृद् बृहती । १७ बृहती ॥ सप्तदशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    दाना- योषणा

    पदार्थ

    [१] हे (ऋषे तत्त्वद्रष्ट:) पुरुष ! (दाना) = दान के द्वारा, त्यागवृत्ति को अपनाने के द्वारा तथा (योषणा) = स्तुति के द्वारा (मित्रं न) = मित्र के समान (मारुतं गणम्) = इन प्राणों के समूह की (अच्छ) = ओर आनेवाला हो। हम प्राणों की आराधना करें। इस आराधना के लिये आवश्यक है कि [क] त्यागवृत्ति को अपनाएँ और [ख] प्रभु की स्तुतिवाले हों। [२] हे (दिवः) = प्रकाशमय वा तथा (ओजसा धृष्णवः) = ओज से [बल से] शत्रुओं का धर्षण करनेवाले प्राणो ! (स्तुताः) = स्तुति किये गये आप (धीभिः) = बुद्धियों के साथ (इषण्यत) = हमारे इस जीवन-यज्ञ में प्राप्त होवो ।

    भावार्थ

    भावार्थ– प्राणसाधना में त्यागवृत्ति व प्रभु-स्तवन का महत्त्वपूर्ण स्थान है। स्तुति किये गये प्राण हमारे जीवन को प्रकाशमय- शत्रुधर्षणवाला तथा बुद्धि- सम्पन्न बनाते हैं ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. सर्व शिक्षक व विद्यार्थी यांनी मित्राप्रमाणे परस्पर वर्तन करून वायू इत्यादी पदार्थांची विद्या चांगल्या प्रकारे शिकावी. ॥ १४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Just as a maiden goes to her chosen friend and love, so, O Rshi, sagely seer and scholar, with gifts of homage, go reverentially to the congregation of the Maruts, dynamic scholars, leaders and divinities of the world. O Maruts, brilliant as light, loving, bold and determined, blazing with splendour, celebrated by the wise and visionaries, come, hasten to our yajna and receive our homage.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should men do is further highlighted.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Rishi (learned knower of the meaning of the mantras) approach the host of the Maruts- thoughtful men, as a youthful wife approaches her husband. Those who desire the welfare of all, who are men of strong determination and therefore admired by all, approach the thoughtful wise people with good intellects, strength and charity. So all should approach them reverentially.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    All teachers and the taught should be friendly to one another and should acquire the knowledge of the properties of the air and other elements.

    Foot Notes

    (घृष्णवः ) धृष्टाः प्रगल्भाः दृढ़ निश्चयाः । घृषा-प्रागल्भ्ये (स्वा० ) = Men of strong determination. (इषण्यत ) प्राप्नुवन्ति । इष गतौ ( दि०)। = Obtain, approach.

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