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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 52 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 52/ मन्त्र 7
    ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः देवता - मरुतः छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    ये वा॑वृ॒धन्त॒ पार्थि॑वा॒ य उ॒राव॒न्तरि॑क्ष॒ आ। वृ॒जने॑ वा न॒दीनां॑ स॒धस्थे॑ वा म॒हो दि॒वः ॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । व॒वृ॒धन्त॑ । पार्थि॑वाः । ये । उ॒रौ । अ॒न्तरि॑क्षे । आ । वृ॒जने॑ । वा॒ । न॒दीना॑म् । स॒धऽस्थे॑ । वा॒ । म॒हः । दि॒वः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये वावृधन्त पार्थिवा य उरावन्तरिक्ष आ। वृजने वा नदीनां सधस्थे वा महो दिवः ॥७॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये। ववृधन्त। पार्थिवाः। ये। उरौ। अन्तरिक्षे। आ। वृजने। वा। नदीनाम्। सधऽस्थे। वा। महः। दिवः ॥७॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 52; मन्त्र » 7
    अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! य उरावन्तरिक्षे पार्थिवा वावृधन्त ये वा नदीनां सधस्थे वृजने वाऽऽवावृधन्त महो दिवो वावृधन्त तान् यूयं विजानीत ॥७॥

    पदार्थः

    (ये) (वावृधन्त) भृशं वर्धन्ते (पार्थिवाः) पृथिव्यां विदिताः (ये) (उरौ) बहुरूपे (अन्तरिक्षे) आकाशे (आ) (वृजने) वृजन्ति यस्मिँस्तस्मिन् (वा) (नदीनाम्) (सधस्थे) समानस्थाने (वा) (महः) महान्तः (दिवः) कामयानाः ॥७॥

    भावार्थः

    ये पृथिव्यादिविद्यां जानन्ति ते सर्वतो वर्धन्ते ॥७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (ये) जो (उरौ) बहुत रूपवाले (अन्तरिक्षे) आकाश में (पार्थिवः) पृथिवी में जाने गये पदार्थ (वावृधन्त) अत्यन्त वृद्धि को प्राप्त होते हैं (ये, वा) अथवा जो (नदीनाम्) नदियों के (सधस्थे) समान स्थान में (वृजने, वा) वा वर्जते हैं जिसमें उसमें (आ) सब प्रकार अत्यन्त वृद्धि को प्राप्त होते हैं और (महः) महान् (दिवः) कामना करनेवाले वृद्धि को प्राप्त होते हैं, उनको आप लोग विशेष करके जानिये ॥७॥

    भावार्थ

    जो पृथिवी आदिकों की विद्या को जानते हैं, वे सब प्रकार वृद्धि को प्राप्त होते हैं ॥७॥

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    विषय

    वायुवत् वीरों के बल ।

    भावार्थ

    भा०- ( ये ) जो ( पार्थिवा ) पृथिवी के हितकारी वायुगण के तुल्य बलवान् (पार्थिवाः) राजा गण पृथिवी पर प्रसिद्ध होकर ( ये उरौ अन्तरिक्षे ) और जो विशाल अन्तरिक्षवत् राष्ट्र के भीतर ( आ ववृधन्त ) सब प्रकार से वृद्धि प्राप्त करते हैं वे ही ( नदीनां वृजने ) समृद्ध प्रजाओं के कार्य व्यवहार में और (महः दिवः सधस्थे ) बड़े तेजस्वी सूर्य के परमोच्च पद के तुल्य सर्वोच्च पद पर भी ( ववृधन्त) वृद्धि को प्राप्त होते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः ॥ मरुतो देवताः ॥ छन्द:- १, ४, ५, १५ विराडनुष्टुप् । २, ७, १० निचृदनुष्टुप् । ६ पंक्तिः । ३, ९, ११ विराडुष्णिक् । ८, १२, १३ अनुष्टुप् । १४ बृहती । १६ निचृद् बृहती । १७ बृहती ॥ सप्तदशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    त्रिलोकी व नाड़ी संस्थान का स्वास्थ्य

    पदार्थ

    [१] शरीर में प्राण ४९ भागों में विभक्त होकर विविध कार्यों को करते हैं। उनमें कई शरीररूप पृथिवीलोक में, कई अन्तरिक्ष स्थानीय हृदय में तथा कई मस्तिष्करूप द्युलोक में कार्य करते हैं। इनके अतिरिक्त कई नाड़ी संस्थान में गतिवाले होते हैं। इनमें ये जो प्राण (पार्थिवाः) = शरीररूप पृथिवी में स्थित हैं वे (वावृधन्त) = खूब ही वृद्धि को प्राप्त करते हैं। (ये) = जो (उरौ) = विशाल (अन्तरिक्षे) = हृदयान्तरिक्ष में हैं वे भी (आ) [आवृधन्त] = समन्तात् वृद्धि का कारण होते हैं । [२] (वा) = अथवा जो प्राण (नदीनाम्) = इस नाड़ी संस्थान के (वृजने) = बल के निमित्त होते हैं अथवा (महः दिवः) = महान् मस्तिष्क रूप द्युलोक के सधस्थे उस प्रभु के साथ मिलकर बैठने के स्थान में होते हैं, वे प्राण [वावृधन्तः] खूब ही वृद्धि को प्राप्त होते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राण ही इस शरीर की त्रिलोकी को शरीर, हृदय व मस्तिष्क को तथा नाड़ी संस्थान को ठीक रखते हैं।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे पृथ्वी इत्यादीची विद्या जाणतात त्यांची सर्व प्रकारे वाढ होते. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The heroes of the earth who rise in honour and glory, the winds and currents of lightning energy in the wide wide skies, or the roaring waters flowing in the river beds and around, or the splendour of the regions of light, these are the Maruts worthy of honour and celebration with homage.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of men are elaborated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! you should know all the good men, who are in the sky or multiform firmament for travel, who are well-known on earth or who grow on the bank of the rivers and in forest. Such men give up all bad habits through good education, and grow desiring the welfare of all and are great by nature and develop their faculties.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those who know the science of earth and other elements, grow from all sides.

    Foot Notes

    (सधस्थे ) समानस्याने। = In place. (पार्थिवा:) पृथिव्यां विदिता:। = Well-known on earth.

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