ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 52/ मन्त्र 13
य ऋ॒ष्वा ऋ॒ष्टिवि॑द्युतः क॒वयः॒ सन्ति॑ वे॒धसः॑। तमृ॑षे॒ मारु॑तं ग॒णं न॑म॒स्या र॒मया॑ गि॒रा ॥१३॥
स्वर सहित पद पाठयः । ऋ॒ष्वाः । ऋ॒ष्टिऽवि॑द्युतः । क॒वयः॑ । सन्ति॑ । वे॒धसः॑ । तम् । ऋ॒षे॒ । मारु॑तम् । ग॒णम् । न॒म॒स्य । र॒मय॑ । गि॒रा ॥
स्वर रहित मन्त्र
य ऋष्वा ऋष्टिविद्युतः कवयः सन्ति वेधसः। तमृषे मारुतं गणं नमस्या रमया गिरा ॥१३॥
स्वर रहित पद पाठये। ऋष्वाः। ऋष्टिऽविद्युतः। कवयः। सन्ति। वेधसः। तम्। ऋषे। मारुतम्। गणम्। नमस्य। रमय। गिरा ॥१३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 52; मन्त्र » 13
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
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अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
मनुष्यैः केषां सङ्गः कर्त्तव्य इत्याह ॥
अन्वयः
हे ऋषे ! य ऋष्टिविद्युतः कवय ऋष्वा वेधसः सन्ति तान् गिरा नमस्याऽनेन तं मारुतं गणं रमया ॥१३॥
पदार्थः
(ये) (ऋष्वाः) महान्तो महाशयाः (ऋष्टिविद्युतः) विद्युति ऋष्टिर्विज्ञानं येषान्ते (कवयः) सकलशास्त्रेषु निपुणाः (सन्ति) (वेधसः) मेधाविनः (तम्) (ऋषे) वेदार्थवित् (मारुतम्) विदुषां मनुष्याणामिमम् (गणम्) समूहम् (नमस्या) सत्कुरु। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (रमया) क्रीडयाऽऽनन्दय। अत्रापि संहितायामिति दीर्घः। (गिरा) सुशिक्षितया सत्यया कोमलया वाचा ॥१३॥
भावार्थः
ये महाशया आप्तान् सेवित्वा सत्कृत्य सुशिक्षां प्राप्य सत्यासत्यविवेकायोपदेशं कृत्वा सर्वान् मनुष्यानानन्दयन्ति ते सर्वैः सत्कर्त्तव्या भवन्ति ॥१३॥
हिन्दी (3)
विषय
मनुष्यों को किसका सङ्ग करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (ऋषे) वेदार्थ के जाननेवाले ! (ये) जो (ऋष्टिविद्युतः) ऋष्टिविद्युत् अर्थात् बिजुली में विज्ञान जिनका वे (कवयः) सम्पूर्ण शास्त्रों में निपुण (ऋष्वाः) बड़े महाशय (वेधसः) बुद्धिमान् जन (सन्ति) हैं उनका (गिरा) उत्तम प्रकार शिक्षित सत्य कोमल वाणी से (नमस्या) सत्कार करिये और इससे (तम्) उस (मारुतम्) विद्वान् मनुष्यों के (गणम्) समूह को (रमया) क्रीड़ा से आनन्दित करिये ॥१३॥
भावार्थ
जो महाशय यथार्थवक्त जनों की सेवा और सत्कार कर उत्तम शिक्षा को प्राप्त होकर सत्य और असत्य के विवेक के लिये उपदेश करके सब मनुष्यों को आनन्दित करते हैं, वे सब लोगों से सत्कार पाने योग्य होते हैं ॥१३॥
विषय
वीरों का आदर ।
भावार्थ
भा०-( ये ) जो (ऋष्वाः ) महान् उदार हृदय, (ऋष्टि-विद्युतः) शस्त्रों से विशेष रूप से चमकने वाले, शस्त्रों में विद्युत् का प्रयोग करने वाले या विद्युत् के विशेष ज्ञानी ( कवयः ) क्रान्तदर्शी, ( वेधसः ) नाना पदार्थों को शिल्पद्वारा निर्माण करने में कुशल, विद्वान् और बुद्धिमान् होते हैं, हे (ऋषे) वेदार्थ को जानने के उत्सुक शिष्य एवं साक्षात् ज्ञाता पुरुष ! ( तं मारुतं गणं ) उन, वायुस्वभाव, बलशाली, अप्रमादी, और ज्ञानी जनों को ( गिरा ) उत्तम वेद वाणी, और न्याययुक्त वचन से ( नमस्य ) आदर कर और ( रमय ) आनन्दित कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः ॥ मरुतो देवताः ॥ छन्द:- १, ४, ५, १५ विराडनुष्टुप् । २, ७, १० निचृदनुष्टुप् । ६ पंक्तिः । ३, ९, ११ विराडुष्णिक् । ८, १२, १३ अनुष्टुप् । १४ बृहती । १६ निचृद् बृहती । १७ बृहती ॥ सप्तदशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
प्राणोपासना
पदार्थ
[१] (ये) = जो मरुत [प्राण] (ऋष्वा:) = दर्शनीय है, ॠष्टि (विद्युतः) = इन्द्रिय, 'मन व बुद्धि' रूप आयुधों से द्योतमान हैं, (कवयः) = क्रान्तदर्शी हैं तथा (वेधसः) = शरीर के अंग-प्रत्यंगों का सुन्दर निर्माण करनेवाले हैं, हे (ऋषे तत्त्वद्रष्टः) = पुरुष! (तं मारुते गणम्) = उस प्राणों के गण को (गिरा) = ज्ञान की वाणियों के द्वारा (रमया) = शरीर में क्रीडा करा और (नमस्य) = पूजित कर । [२] प्राणों की शक्ति अद्भुत है, वे अपनी शक्ति के कारण दर्शनीय हैं। ये 'इन्द्रिय, मन, बुद्धि' रूप आयुधों को विद्योतित करते हैं। बुद्धि को तीव्र बनाते हैं। सब अंगों की शक्ति के विधाता हैं। ज्ञान प्रधान जीवन बिताने से प्राणशक्ति का पोषण होता है। यही प्राणों का पूजन है। भोग-विलास का जीवन बिताना ही प्राणों का निरादर है । =
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना से जीवन दर्शनीय सूक्ष्म बुद्धिवाला व पुष्ट अंगोंवाला बनता है। हम ज्ञान प्रधान जीवन बिताते हुए प्राणों का पोषण व पूजन करें।
मराठी (1)
भावार्थ
जे लोक आप्त विद्वानांची सेवा व सत्कार करून उत्तम शिक्षण घेऊन सत्यासत्याच्या विवेकाचा उपदेश करून सर्व माणसांना आनंदित करतात. त्यांचा सर्व लोकांनी सत्कार करावा, अशी त्यांची योग्यता असते. ॥ १३ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Those who are great and strong, formidable scholars of science, of heat, light and electric energy, poetic visionaries, writers and singers, and sages of the sacred love: for that class of dynamic leaders and path finders, O Rshi, seer, sage and scholar, offer reverence and homage and, with the celebrant’s words of praise and appreciation, give them the feel of the joy and holiness of their vocation.
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