ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 52/ मन्त्र 17
ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः
देवता - मरुतः
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
स॒प्त मे॑ स॒प्त शा॒किन॒ एक॑मेका श॒ता द॑दुः। य॒मुना॑या॒मधि॑ श्रु॒तमुद्राधो॒ गव्यं॑ मृजे॒ नि राधो॒ अश्व्यं॑ मृजे ॥१७॥
स्वर सहित पद पाठस॒प्त । मे॒ । स॒प्त । शा॒किनः॑ । एक॑म्ऽएका । श॒ता । द॒दुः॒ । य॒मुना॑याम् । अधि॑ । शृउ॒तम् । उत् । राधः॑ । गव्य॑म् । मृ॒जे॒ । नि । राधः॑ । अश्व्य॑म् । मृ॒जे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सप्त मे सप्त शाकिन एकमेका शता ददुः। यमुनायामधि श्रुतमुद्राधो गव्यं मृजे नि राधो अश्व्यं मृजे ॥१७॥
स्वर रहित पद पाठसप्त। मे। सप्त। शाकिनः। एकम्ऽएका। शता। ददुः। यमुनायाम्। अधि। श्रुतम्। उत्। राधः। गव्यम्। मृजे। नि। राधः। अश्व्यम्। मृजे ॥१७॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 52; मन्त्र » 17
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 10; मन्त्र » 7
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 10; मन्त्र » 7
विषय - 'गव्यं अश्वयं' राधः
पदार्थ -
[१] शरीर में प्राण ४९ भागों में विभक्त होकर कार्य कर रहे हैं। ये (सप्त सप्त) = सात गुणा सात, अर्थात् ४९ प्राण मे मेरे लिये (शाकिन:) = शक्ति का संचार करनेवाले हैं। (एकं एका) = इनमें से एक-एक (शता ददुः) = मेरे लिये सौ वर्ष के आयुष्य को देनेवाले होते हैं। सब प्राण ठीक हों, तभी सौ वर्ष का जीवन प्राप्त होता है । [२] (यमुनायां अधि) = संयम नदी के प्रवाह के होने पर, अर्थात् ठीक संयम के होने पर मैं (श्रुतम्) = ज्ञान को, जो (गव्यम्) = ज्ञानेन्द्रिय सम्बन्धी (उद्राधः) = उत्कृष्ट धन है, (मृजे) = शुद्ध करता हूँ। प्राण संयम के होने पर ज्ञानाग्नि दीप्त होती ही है। मैं इस प्राण संयम के होने पर (अश्व्यं राधः) = कर्मेन्द्रिय सम्बन्धी ऐश्वर्य को भी (मृजे) = शुद्ध करता हूँ। अर्थात् प्राणसाधना से परिमार्जित हुई हुई कर्मेन्द्रियाँ भी उत्कृष्ट कर्मोंवाली होती हैं।
भावार्थ - भावार्थ- प्राण हमें शक्तिशाली बनाते हैं। शतवर्ष के जीवन को प्राप्त कराते हैं । ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों को परिमार्जित कर ज्ञान व यज्ञों को प्राप्त कराते हैं । अगला सूक्त भी इन्हीं मरुतों का उल्लेख करता है -
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