ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 54/ मन्त्र 1
प्र शर्धा॑य॒ मारु॑ताय॒ स्वभा॑नव इ॒मां वाच॑मनजा पर्वत॒च्युते॑। घ॒र्म॒स्तुभे॑ दि॒व आ पृ॑ष्ठ॒यज्व॑ने द्यु॒म्नश्र॑वसे॒ महि॑ नृ॒म्णम॑र्चत ॥१॥
स्वर सहित पद पाठप्र । शर्धा॑य । मारु॑ताय । स्वऽभा॑नवः । इ॒माम् । वाच॑म् । अ॒न॒ज॒ । प॒र्व॒त॒ऽच्युते॑ । घ॒र्म॒ऽस्तुभे॑ । दि॒वः । आ । पृ॒ष्ठ॒ऽयज्व॑ने । द्यु॒म्नऽश्र॑वसे । महि॑ । नृ॒म्णम् । अ॒र्च॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र शर्धाय मारुताय स्वभानव इमां वाचमनजा पर्वतच्युते। घर्मस्तुभे दिव आ पृष्ठयज्वने द्युम्नश्रवसे महि नृम्णमर्चत ॥१॥
स्वर रहित पद पाठप्र। शर्धाय। मारुताय। स्वऽभानवे। इमाम्। वाचम्। अनज। पर्वतऽच्युते। घर्मऽस्तुभे दिवः। आ। पृष्ठऽयज्वने। द्युम्नऽश्रवसे। महि। नृम्णम्। अर्चत ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 54; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
विषय - 'मरुत शर्ध' का स्तवन
पदार्थ -
[१] (मारुताय) = प्राण-सम्बन्धी (शर्धाय) = बल के लिये (इमां वाचम्) = इस स्तुतिवाणी को (प्र अनज) = प्रकर्षेण प्राप्त कराओ जो मारुत बल (स्वभानवे) = आत्म दीप्तिवाला है और (पर्वतच्युते) = अविद्या पर्वत को विनष्ट करनेवाला है। [२] उस प्राणों के बल के लिये तुम स्तवन करो जो (घर्मस्तुभे) = शरीर में गर्मी को, उचित शक्ति की उष्णता को, थामनेवाला है और (दिवः) = ज्ञान के द्वारा (पृष्ठयज्वने) = यज्ञशील पुरुषों के लिये पृष्ठ [back bone] के समान बनते हैं। ये प्राणसाधना करनेवाले पुरुष यज्ञशील होते हैं, भोगवृत्ति से दूर होकर ये यज्ञियवृत्तिवाले होते हैं । [३] (द्युम्नश्रवसे) = देदीप्यमान ज्ञान के प्रकाश की प्राप्ति के लिये (महि नृम्णम्) = प्राणों के इस महान् बल की (अर्चत) = अर्चना करो। प्राणसम्बन्धी बल बुद्धि को सूक्ष्म बनायेगा और देदीप्यमान ज्ञान-ज्योति को प्राप्त करायेगा ।
भावार्थ - भावार्थ- प्राणसाधना से [क] आत्मज्ञान की दीप्ति प्राप्त होती है, [ख] अविद्या नष्ट होती है, [ग] शरीर में शक्ति का उचित संरक्षण होता है, [घ] जीवन यज्ञमय बनता है और [ङ] देदीप्यमान ज्ञान का प्रकाश प्राप्त होता है ।
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