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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 53 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 53/ मन्त्र 16
    ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः देवता - मरुतः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः

    स्तु॒हि भो॒जान्त्स्तु॑व॒तो अ॑स्य॒ याम॑नि॒ रण॒न्गावो॒ न यव॑से। य॒तः पूर्वाँ॑इव॒ सखीँ॒रनु॑ ह्वय गि॒रा गृ॑णीहि का॒मिनः॑ ॥१६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्तु॒हि । भो॒जान् । स्तु॒व॒तः । अ॒स्य॒ । याम॑नि । रण॑म् । गावः॑ । न । यव॑से । य॒तः । पूर्वा॑न्ऽइव । सखी॑न् । अनु॑ । ह्व॒य॒ । गि॒रा । गृ॒णी॒हि॒ । का॒मिनः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्तुहि भोजान्त्स्तुवतो अस्य यामनि रणन्गावो न यवसे। यतः पूर्वाँइव सखीँरनु ह्वय गिरा गृणीहि कामिनः ॥१६॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्तुहि। भोजान्। स्तुवतः। अस्य। यामनि। रणन्। गावः। न। यवसे। यतः। पूर्वान्ऽइव। सखीन्। अनु। ह्वय। गिरा। गृणीहि। कामिनः ॥१६॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 53; मन्त्र » 16
    अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 13; मन्त्र » 6

    पदार्थ -
    [१] इन (भोजान्) = पालन करनेवाले, शरीर, मन व बुद्धि का रक्षण करनेवाले तथा (स्तुवतः) = प्रभु का स्तवन करनेवाले प्रभु की ओर हमारा झुकाव करनेवाले, प्राणों का (स्तुहि) = प्रशंसन करो । इन प्राणों की महिमा का स्मरण करो। (अस्य) = इस प्राणगण के (यामनि) = मार्ग में (गाव: रणन्) = ज्ञान की वाणियाँ रमण करती हैं (न) = जैसे गौवें (यवसे) = घास में रमण करती हैं। प्राणसाधक के जीवन में ज्ञान का प्रादुर्भाव होता है । [२] (यतः) = इन गतिशील मरुतों को (पूर्वान्) = पालन व पूरण करनेवाले (सखीन् इव) = मित्रों के समान (अनु ह्वयः) = पुकार से प्राण ही सर्वप्रथम मित्र हैं। इन (कामिनः) = सदा भला चाहनेवाले प्राणों को (गिरा) = इन ज्ञानवाणियों से (गृणीहि) = स्तुत कर । प्राणसाधना करते हुए हम ज्ञान को बढ़ायें, इस ज्ञान को देकर ही ये प्राण हमारा उत्कृष्ट हित करते हैं ।

    भावार्थ - भावार्थ- प्राण [क] हमारा पालन करते हैं, [ख] हमें प्रभु स्तवन की ओर झुकाते हैं, [ग] हमारे ज्ञान को बढ़ाते हैं । एवं ये प्राण ही हमारे सर्वप्रथम मित्र हैं। अगले सूक्त में भी श्यावाश्व मरुतों का आराधन करता है

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