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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 53 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 53/ मन्त्र 16
    ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः देवता - मरुतः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः

    स्तु॒हि भो॒जान्त्स्तु॑व॒तो अ॑स्य॒ याम॑नि॒ रण॒न्गावो॒ न यव॑से। य॒तः पूर्वाँ॑इव॒ सखीँ॒रनु॑ ह्वय गि॒रा गृ॑णीहि का॒मिनः॑ ॥१६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्तु॒हि । भो॒जान् । स्तु॒व॒तः । अ॒स्य॒ । याम॑नि । रण॑म् । गावः॑ । न । यव॑से । य॒तः । पूर्वा॑न्ऽइव । सखी॑न् । अनु॑ । ह्व॒य॒ । गि॒रा । गृ॒णी॒हि॒ । का॒मिनः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्तुहि भोजान्त्स्तुवतो अस्य यामनि रणन्गावो न यवसे। यतः पूर्वाँइव सखीँरनु ह्वय गिरा गृणीहि कामिनः ॥१६॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्तुहि। भोजान्। स्तुवतः। अस्य। यामनि। रणन्। गावः। न। यवसे। यतः। पूर्वान्ऽइव। सखीन्। अनु। ह्वय। गिरा। गृणीहि। कामिनः ॥१६॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 53; मन्त्र » 16
    अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 13; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे विद्वन् ! रणँस्त्वं स्तुवतो भोजान् स्तुहि। अस्य यामनि यतः पूर्वानिव सखीन् गिराऽनु ह्वय सखीन् यवसे गावो नाऽनु ह्वय कामिनो गृणीहि ॥१६॥

    पदार्थः

    (स्तुहि) (भोजान्) पालकान् (स्तुवतः) प्रशंसकान् (अस्य) रक्षणस्य (यामनि) मार्गे (रणन्) उपदिशन् (गावः) धेनवः (न) इव (यवसे) बुसादौ (यतः) (पूर्वानिव) यथा पूर्वांस्तथा वर्त्तमानान् (सखीन्) मित्रान् (अनु) (ह्वय) निमन्त्रय (गिरा) वाण्या (गृणीहि) (कामिनः) प्रशस्तं कामो येषामस्ति तान् ॥१६॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । हे विद्वन् ! ये प्रशंसनीयाः सर्वेषां सुहृदः सत्यकामाः स्युस्तान् सदैव सत्कुर्य्या इति ॥१६॥ अत्र प्रश्नोत्तरविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति त्रिपञ्चाशत्तमं सूक्तं त्रयोदशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (2)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे विद्वन् ! (रणन्) उपदेश देते हुए आप (स्तुवतः) प्रशंसा करनेवाले (भोजान्) पालकों की (स्तुहि) स्तुति कीजिये और (अस्य) इस रक्षण के (यामनि) मार्ग में (यतः) जिससे (पूर्वानिव) जैसे पूर्व वैसे वर्त्तमान (सखीन्) मित्रों का (गिरा) वाणी से (अनु, ह्वय) निमन्त्रण करो और मित्रों को (यवसे) बुस आदि में (गावः) गौओं के (न) सदृश निमन्त्रण करो और (कामिनः) श्रेष्ठ मनोरथ जिनका उनकी (गृणीहि) स्तुति करो ॥१६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । हे विद्वन् ! जो प्रशंसा करने योग्य और सब के मित्र और सत्य की कामना करनेवाले होवें, उनका सदा ही सत्कार करो ॥१६॥ इस सूक्त में प्रश्न उत्तर और विद्वान् के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह तिरपनवाँ सूक्त और तेरहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    तेजस्वी होने आदि की प्रार्थना ।

    भावार्थ

    भा०—हे विद्वान् शासक ! तू ( स्तुवतः ) उत्तम स्तुति करने और उपदेश करने वाले ( भोजानू ) प्रजा के पालक पुरुषों की (स्तुहि ) स्तुति कर, उनके प्रति अपने उत्तम वचन कह । वे प्रजाजन ( अस्य यामनि ) इसके उत्तम शासन में ( यवसे गावः न ) अन्नादि उपभोग वा वृत्ति आजीविका के लिये गौओं के समान सुशील होकर (रणन् ) आनन्द से जीवन व्यतीत करते हैं । ( यतः ) जिस कारण से ( पूर्वान् इव सखीन् ) पूर्वकाल के मित्रों के समान प्रेम से वर्ताव करने वालों को ही ( अनु ह्वये) आदर से बुलाया जाता है ! उसी प्रकार हे राजन् ! विद्वन् ! तू ( कामिनः) उत्तम विद्या धन आदि की इच्छा करने वाले पुरुषों को भी ( गृणीहि ) अपने पास बुला और उनको सत् उपदेश किया कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः ॥ मरुतो देवताः ॥ छन्द:-१ भुरिग्गायत्री । ८, १२ गायत्री । २ निचृद् बृहती । ९ स्वराड्बृहती । १४ बृहती । ३ अनुष्टुप् । ४, ५ उष्णिक् । १०, १५ विराडुष्णिक् । ११ निचृदुष्णिक् । ६, १६ पंक्तिः ७, १३ निचृत्पंक्तिः ॥ षोडशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे विद्वाना! जे प्रशंसा करण्यायोग्य, सर्वांचे मित्र असून सत्याची कामना करणारे असतील त्यांचा सत्कार कर. ॥ १६ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Adore the Maruts, natural saviours and leading lights of humanity, givers of life and food for energy while moving on the holy path of this yajnic celebrant of theirs, rejoicing at the same time like cows running for their favourite grass. Invoke them like ancient eternal friends, and, loving as they are, celebrate them with holy songs of adoration.

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