ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 53/ मन्त्र 6
आ यं नरः॑ सु॒दान॑वो ददा॒शुषे॑ दि॒वः कोश॒मचु॑च्यवुः। वि प॒र्जन्यं॑ सृजन्ति॒ रोद॑सी॒ अनु॒ धन्व॑ना यन्ति वृ॒ष्टयः॑ ॥६॥
स्वर सहित पद पाठआ । यम् । नरः॑ । सु॒ऽदान॑वः । द॒दा॒शुषे॑ । दि॒वः । कोश॑म् । अचु॑च्यवुः । वि । प॒र्जन्य॑म् । सृ॒ज॒न्ति॒ । रोद॑सी॒ इति॑ । अनु॑ । धन्व॑ना । य॒न्ति॒ । वृ॒ष्टयः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ यं नरः सुदानवो ददाशुषे दिवः कोशमचुच्यवुः। वि पर्जन्यं सृजन्ति रोदसी अनु धन्वना यन्ति वृष्टयः ॥६॥
स्वर रहित पद पाठआ। यम्। नरः। सुऽदानवः। ददाशुषे। दिवः। कोशम्। अचुच्यवुः। वि। पर्जन्यम्। सृजन्ति। रोदसी इति। अनु। धन्वना। यन्ति। वृष्टयः ॥६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 53; मन्त्र » 6
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 12; मन्त्र » 1
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अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 12; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्याः किं कुर्युरित्याह ॥
अन्वयः
हे मनुष्याः ! सुदानवो दिवो नरो ददाशुषे यं कोशमाऽचुच्यवू रोदसी पर्जन्यं वि सृजन्ति तमनु धन्वना वृष्टयो यन्ति तथा यूयमप्याचरत ॥६॥
पदार्थः
(आ) समन्तात् (यम्) (नरः) नेतारो मनुष्याः (सुदानवः) उत्तमविद्यादिशुभगुणदानाः (ददाशुषे) दात्रे (दिवः) कामयमानाः (कोशम्)। मेघम्। कोश इति मेघनामसु पठितम्। (निघं०१.१) (अचुच्यवुः) च्यावयेयुः (वि) (पर्जन्यम्) मेघम् (सृजन्ति) (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (अनु) (धन्वना) (यन्ति) (वृष्टयः) वर्षाः ॥६॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। त एव मनुष्या उत्तमा दातारो ये यज्ञेन जङ्गलरक्षणेन जलाशयनिर्माणेन पुष्कला वर्षाः कारयन्ति ॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्य क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (सुदानवः) उत्तमविद्या आदि श्रेष्ठ गुणों के दान से युक्त (दिवः) कामना करते हुए (नरः) नायक मनुष्य (ददाशुषे) देनेवाले के लिये (यम्) जिस (कोशम्) मेघ को (आ) चारों ओर से (अचुच्युवुः) वर्षावें और (रोदसी) अन्तरिक्ष और पृथिवी को (पर्जन्यम्) मेघ को (वि, सृजन्ति) विशेषतया छोड़ते हैं उसके (अनु) अनुकूल (धन्वना) अन्तरिक्ष से (वृष्टयः) वर्षायें (यन्ति) प्राप्त होती हैं, वैसे आप लोग भी आचरण करो ॥६॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। वे ही मनुष्य उत्तम दाता हैं, जो यज्ञ, जङ्गलों की रक्षा और जलाशयों के निर्म्माण से बहुत वर्षाओं को कराते हैं ॥६॥
विषय
नायकों के बिजुली मेघादिवत् गुण ।
भावार्थ
भा०- जिस प्रकार (सु-दानवः) उत्तम रीति से जल देने में कुशल वायु गण (दिवः कोशम् अचुच्यवुः ) अन्तरिक्ष से जल-गर्भित मेघ को बरसाते हैं, (पर्जन्यं वि सृजन्ति ) मेघ को रचते हैं और ( धन्वना वृष्टयः अनु यन्ति) जल सहित, अन्तरिक्ष मार्ग से जल बृष्टियां आती हैं उसी प्रकार (यं) जिस ( कोशम् ) सुवर्णादि के कोश को ( सु-दानवः) उत्तम दानशील ( नरः ) पुरुष (दिवः ) अपने व्यापार, युद्धादि विजय से ( अचुच्यवुः ) सब ओर से प्राप्त करते हैं और ( पर्जन्यं) मेघवत् धनार्जन करने वाले पुरुष को (वि सृजन्ति ) विविध प्रकार से उन्नत करते, (यं अनु) जिसके पीछे २ वर्षाओं के तुल्य शूरवीर होकर (धन्वना यन्ति ) धनुष, शस्त्रास्त्र लेकर चलते हैं वह पुरुष उनका नायक होने योग्य है । वह ही उनके उद्भव को जानता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः ॥ मरुतो देवताः ॥ छन्द:-१ भुरिग्गायत्री । ८, १२ गायत्री । २ निचृद् बृहती । ९ स्वराड्बृहती । १४ बृहती । ३ अनुष्टुप् । ४, ५ उष्णिक् । १०, १५ विराडुष्णिक् । ११ निचृदुष्णिक् । ६, १६ पंक्तिः ७, १३ निचृत्पंक्तिः ॥ षोडशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
वृष्टिवाहक वायुएँ
पदार्थ
[१] आधिदैविक क्षेत्र में 'मरुतः' का अर्थ है 'वृष्टिप्रद वायुयें'। ये वृष्टिवाहक (वायुयें नरः) = मेघों को आगे और आगे ले चलनेवाली हैं। (सुदानवः) = ये वृष्टि द्वारा उत्तम अन्नादि पदार्थों को देनेवाली हैं। ये (ददाशुषे) = हवि को देनेवाले, यज्ञशील- प्रजावर्ग के लिये (यम्) = जिस (कोशम्) = जल के कोशभूत मेघ को (दिवः) = अन्तरिक्षलोक से (आचुच्यवुः) = क्षरित करते हैं, उस (पर्जन्यम्) = मेघ को (रोदसी) = द्यावापृथिवी की (अनु) = अनुकूलता से (विसृजन्ति) = उत्पन्न करते हैं। पृथिवीस्थ जल जब द्युलोकस्थ सूर्य की किरणों से वाष्पीभूत होकर ऊपर जाता है, तभी पर्जन्य का निर्माण होता है। उसी समय (धन्वना) = उदक के साथ (वृष्टयः) = वृष्टि को करनेवाले ये मरुत् (यन्ति) = गति करते हैं [गच्छता उदकेन सह वृष्टि प्रद मरुतो यन्ति सा०] । इन मरुतों से उस उस स्थान में प्राप्त कराये गये ये मेघ वृष्टि को करनेवाले होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- मरुत्, अर्थात् वृष्टिवाहक वायुयें मेघों से वृष्टि को कराके यज्ञशील प्रजावर्ग के लिये उत्तम अन्नों को देनेवाली होती हैं ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. तीच माणसे उत्तम दाते असतात जी यज्ञाद्वारे जंगलाचे रक्षण करतात व जलाशय निर्माण करून पुष्कळ वृष्टी करवितात. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The treasure wealth of holy vapours, which the generous leading lights of the science of yajna cause to move from the regions of sunlight for the generous creators and givers of food and energy, shower down to the earth and skies: The skies then form the clouds and let them rain down on the earth and the floods move as directed over the thirsty lands.$(This mantra is on the science of rain and irrigation which can further be explained with reference to Chhandogya Upanishad 5, 4, 1 to 5, 8, 2, and Gita 3, 14-16.)
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should men do is told further.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! the leading persons who are givers of good knowledge and other virtues, desire the welfare of all. They cause the cloud to fall down from the sky for the benefit of all donors. They let loose the rain clouds; and the shedders dealers of the rain spread everywhere with abundant water. You should also do likewise.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
They only are good donors who cause sufficient rants through the performance of the Yajnas, and thus work for preservations of forests and construction of the tanks etc.
Foot Notes
(सुदानवः) उत्तमविद्यादिशुभगुणदातारः । = Good donors of knowledge and good virtues. (कोषम् ) मेघम् । कोश इति मेघनाम (NG 1, 10)। = Clouds. (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ । रोदसीति द्यावापृथिवानाम (NG 3, 30 ) (धन्वना) अन्तरिक्षेण । धन्वान्तरिक्षम् । धन्वन्त्यस्मादाप: (NKT 5, 1, 5)। = Heaven and earth,
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