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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 53 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 53/ मन्त्र 4
    ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः देवता - मरुतः छन्दः - निचृद्बृहती स्वरः - मध्यमः

    ये अ॒ञ्जिषु॒ ये वाशी॑षु॒ स्वभा॑नवः स्र॒क्षु रु॒क्मेषु॑ खा॒दिषु॑। श्रा॒या रथे॑षु॒ धन्व॑सु ॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । अ॒ञ्जिषु॑ । ये । वाशी॑षु । स्वऽभा॑नवः । स्र॒क्षु । रु॒क्मेषु॑ । खा॒दिषु॑ । श्रा॒याः । रथे॑षु । धन्व॑ऽसु ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये अञ्जिषु ये वाशीषु स्वभानवः स्रक्षु रुक्मेषु खादिषु। श्राया रथेषु धन्वसु ॥४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये। अञ्जिषु। ये। वाशीषु। स्वऽभानवः। स्रक्षु। रुक्मेषु। खादिषु। श्रायाः। रथेषु। धन्वऽसु ॥४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 53; मन्त्र » 4
    अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    मनुष्याः पुरुषार्थेन किं किं प्राप्नुयुरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! ये वाशीषु स्वभानवोऽञ्जिषु स्रक्षु रुक्मेषु ये खादिषु रथेषु धन्वसु श्रायाः सन्ति ते विख्याता भवन्ति ॥४॥

    पदार्थः

    (ये) (अञ्जिषु) प्रकटेषु व्यवहारेषु (ये) (वाशीषु) वाणीषु (स्वभानवः) स्वकीया भानवः प्रकाशा येषान्ते (स्रक्षु) माल्येषु मणिषु (रुक्मेषु) सुवर्णादिषु (खादिषु) भक्षणादिषु (श्रायाः) ये शृण्वन्ति श्रावयन्ति वा ते (रथेषु) वाहनेषु (धन्वसु) स्थलेषु ॥४॥

    भावार्थः

    ये मनुष्या पुरुषार्थिनः स्युस्ते सर्वतः सत्कृताः सन्तः श्रीमन्तो भवन्ति ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    मनुष्य पुरुषार्थ से किस किसको प्राप्त होवें, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (ये) जो (वाशीषु) वाणियों में (स्वभानवः) अपने प्रकाश जिनके वे (अञ्जिषु) प्रकट व्यवहारों में (स्रक्षु) माला के मणियों में और (रुक्मेषु) सुवर्ण आदिकों में वा (ये) जो (खादिषु) भक्षण आदिकों में (रथेषु) वाहनों में और (धन्वसु) स्थलों में (श्रायाः) सुनते वा सुनाते हैं, वे प्रसिद्ध होते हैं ॥४॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य पुरुषार्थी होवें, वे सब प्रकार से सत्कार को प्राप्त हुए लक्ष्मीवान् होते हैं ॥४॥

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    विषय

    उत्तम वीर तेजस्वी, पुरुषों से उपदेश की प्रार्थना ।

    भावार्थ

    भा०—( ये ) जो पुरुष ( अञ्जिषु ) अपने द्योतक विशेष चिह्नों, प्रकट पोशाकों वा उत्तम गुणों में ( स्व-भानवः ) स्वयं अपनी कान्ति से युक्त हैं ( ये वाशीषु स्व-भानवः ) जो अपनी वाणियों में और शस्त्र प्रयोगों में अपने बल और कौशल से चमकने वाले हैं और जो ( स्रक्षु ) मालाओं और मणियों और ( रुक्मेषु) स्वर्ण के आभूषणों के बीच में भी और (खादिषु) उत्तम भोजनों के प्राप्त होने पर वा शास्त्रों में भी ( स्व-भानवः ) स्वयं अपने तेज से चमकने वाले तेजस्वी हैं, जो रूप, वस्त्र, शस्त्र, माला, स्वर्णाभरणादि बाह्य साधनों के होते हुए भी स्वतः तेजस्वी हैं और जो ( रथेषु ) रथों,महारथियों और ( धन्वसु ) धनुर्धारियों में भी ( श्रायाः ) सिंहनाद सुनाने वाले वा गुणों द्वारा प्रसिद्ध वा स्थिरता से सबके आधारभूत हैं ( ते मे आहुः ) वे मुझे उत्तम उपदेश करें। वे हर्ष की वृद्धि के लिये उत्तम रथों, तेजों सहित मुझे प्राप्त हों ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः ॥ मरुतो देवताः ॥ छन्द:-१ भुरिग्गायत्री । ८, १२ गायत्री । २ निचृद् बृहती । ९ स्वराड्बृहती । १४ बृहती । ३ अनुष्टुप् । ४, ५ उष्णिक् । १०, १५ विराडुष्णिक् । ११ निचृदुष्णिक् । ६, १६ पंक्तिः ७, १३ निचृत्पंक्तिः ॥ षोडशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    हम ज्ञानवान का स्तवन करें

    पदार्थ

    [१] (ये) = जो प्राण (अञ्जिषु) = [अञ्जु गतौ] यज्ञादि कर्मों की प्रवृत्तियों में (स्वभानव:) = आत्म दीप्तिवाले (श्रायाः) = आश्रयणीय होते हैं, उन प्राणों का तू स्तवन कर। (ये) = जो (वाशीषु) = ज्ञान की वाणियों में आश्रयणीय होते हैं उनका स्तवन कर। [२] (स्त्रक्षु) = [सृज्] निर्माणात्मक कार्यों में, (रुक्मेषु) = ज्ञान दीप्तियों में [रुच् दीप्तौ] तथा (सादिषु) = शस्त्रों में व वासनाओं को विनष्ट करने में (श्रायाः) = आश्रयणीय होते हैं। इनकी साधना से ही मनुष्य निर्माणात्मक कार्यों में प्रवृत्त होता है, वह ज्ञान को दीप्त कर पाता है और शत्रुओं का विनाश करने में समर्थ होता है। ये प्राण (रथेषु) = इन शरीर रथों को उत्तम रखने के निमित्त आश्रयणीय होते हैं तथा (धन्वसु) = 'प्रणव' रूप धनुष को प्राप्त करने के निमित्त आश्रयणीय होते हैं। अर्थात् हमारे शरीरों को ठीक रखते हुए ये प्राण हमें प्रभु-प्रवण करते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राण हमें गतिशील व ज्ञानदीप्त बनाते हैं। वे हमें निर्माणात्मक कार्यों में, ज्ञान प्राप्ति में व वासनाविनाश में प्रवृत्त करते हैं। इनके कारण शरीर रथ दृढ़ बनता है और मनुष्य प्रभु के नाम का जप करनेवाला होता है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी माणसे पुरुषार्थी असतात त्यांचा सर्व प्रकारे सत्कार होतो व ते श्रीमंत होतात. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The people who are innately brilliant, who shine in their open works and achievements, in their speech and expression, in garlands of applause in series of action programmes, in their golds and jewels of honour, and who ride pioneering chariots of nations and resound in the twang of their bow: they are the Maruts.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The importance of hard work is stressed.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men! the persons who shine on account of their virtues and who are self-luminous with their manifest dealings, in their refined speeches, in their garlands or jewels, in their gold and other ornaments, in their eating, in their vehicles and on earth, they become renowned.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those who are industrious are respected every where and become wealthy.

    Translator's Notes

    The epithets used for Maruts like नर:, मर्या. अरेपस: clearly show that they are sinless leading mortals and not storm gods as erroneously supposed and explained to be by Prof. Maxmullar and others.

    Foot Notes

    (अन्जिषु ) प्रकटेषु व्यवहारेषु । अंजु व्यक्तिम्रक्षण-कान्तिगतिषु । (रुधा० ) । अत्र व्यक्त्यर्थकः । व्यक्ति: प्रकटीकरणम् । = In manifest dealings. (वाशीषु ) वाणीषु । वाशीति वाङ्नाम ( NK 1, 11 ) । = In speeches. (धन्वषु) स्थलेषु । = In the lands.

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