ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 53/ मन्त्र 7
त॒तृ॒दा॒नाः सिन्ध॑वः॒ क्षोद॑सा॒ रजः॒ प्र स॑स्रुर्धे॒नवो॑ यथा। स्य॒न्ना अश्वा॑इ॒वाध्व॑नो वि॒मोच॑ने॒ वि यद्वर्त॑न्त ए॒न्यः॑ ॥७॥
स्वर सहित पद पाठत॒तृ॒दा॒नाः । सिन्ध॑वः । क्षोद॑सा । रजः॑ । प्र । स॒स्रुः॒ । धे॒नवः॑ । य॒था॒ । स्य॒न्नाः । अश्वाः॑ऽइव । अध्व॑नः । वि॒ऽमोच॑ने । वि । यत् । वर्त॑न्ते । ए॒न्यः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ततृदानाः सिन्धवः क्षोदसा रजः प्र सस्रुर्धेनवो यथा। स्यन्ना अश्वाइवाध्वनो विमोचने वि यद्वर्तन्त एन्यः ॥७॥
स्वर रहित पद पाठततृदानाः। सिन्धवः। क्षोदसा। रजः। प्र। सस्रुः। धेनवः। यथा। स्यन्नाः। अश्वाःऽइव। अध्वनः। विऽमोचने। वि। यत्। वर्तन्ते। एन्यः ॥७॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 53; मन्त्र » 7
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
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अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः किं विज्ञातव्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यथा धेनवस्तथा क्षोदसा ततृदानाः सिन्धवो रजः प्र सस्रुरश्वाइव यद्याः स्यन्ना एन्यो विमोचनेऽध्वनो वि वर्त्तन्ते ताभ्यस्सर्व उपकारा ग्राह्याः ॥७॥
पदार्थः
(ततृदानाः) भूमिं हिंसन्तः (सिन्धवः) नद्यः (क्षोदसा) जलेन (रजः) लोकम् (प्र) (सस्रुः) स्रवन्ति (धेनवः) दुग्धदात्र्यो गावः (यथा) येन प्रकारेण (स्यन्नाः) आशुगमनाः (अश्वाइव) यथा तुरङ्गं धावन्ति तथा (अध्वनः) मार्गान् (विमोचने) (वि) (यत्) याः (वर्त्तन्ते) (एन्यः) या यन्ति ता नद्यः। (निघं०१.१३) ॥७॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः । यथा धेनवो दुग्धं वर्षन्ति तथैव नदीसरःसमुद्रादयो जलाशयाः पृथिव्यां वर्षन्ति ॥७॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को क्या जानना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (यथा) जिस प्रकार से (धेनवः) दुग्ध देनेवाली गौएँ वैसे (क्षोदसा) जल से (ततृदानाः) भूमि को तोड़नेवाली (सिन्धवः) नदियाँ (रजः) लोक को (प्र, सस्रुः) प्रस्रवित करती हैं । और (अश्वाइव) जैसे घोड़े दौड़ते हैं, वैसे (यत्) जो (स्यन्नाः) शीघ्र जानेवाली (एन्यः) नदियाँ (विमोचने) विमोचन में (अध्वनः) मार्गों को (वि, वर्त्तन्ते) बितातीं हैं, उनसे सम्पूर्ण उपकार ग्रहण करने चाहियें ॥७॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जैसे दुग्ध देनेवाली गौवें दुग्ध की वृष्टि करती हैं, वैसे ही नदी, तड़ाग, समुद्र आदि और अन्य जलाशय पृथिवी में वृष्टि करते हैं ॥७॥
विषय
जलप्रवाह, अश्व, नदी, वायु आदि दृष्टान्त से वैश्यों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
भा०- ( यथा क्षोदसा रजः ततृदानाः सिन्धवः रजः प्रसस्रु: ) जिस प्रकार जल से करारों की मट्टी तोड़ते हुए जल प्रवाह बहते हैं और (यथा-धेनवः क्षोदसा रजः ततृदानाः प्रसस्रु:) जिस प्रकार गौवें भूमिमय प्रदेश मैं धूलि उड़ाती हुई आगे बढ़ती हैं और जिस प्रकार ( विमोचने ) खुला स्वच्छन्द छोड़ देने पर ( अश्वा इव ) छोड़े ( अध्वनः ) मार्गों में (स्यन्ना:) वेगवान् होकर ( रजः ततृदानाः ) धूल उड़ाते हुए (प्रसस्रु:) आगे बढ़ते हैं और जिस प्रकार (एन्यः) नदियां ( रजः ततृदानाः ) धूल या मट्टी काटती हुईं (वि वर्त्तन्ते) विविध मार्गों से आती हैं उसी प्रकार वायुगण (क्षोदसा रजः ततृदानाः प्र सस्रुः ) जल सहित अन्तरिक्ष चीरते हुए वेग से चलते और ( विवर्त्तन्ते) विविध रूप से बहते हैं उसी प्रकार व्यापारी और वीर जन भी ( क्षोदसा ) जल मार्ग से ( रजः ततृदानाः ) भूलोक को पार करते हुए ( प्र सस्रुः ) दूर देशों में जाते और (विवर्त्तन्ते) विविध वार्त्ता व्यापारादि करें और वीर पुरुष (क्षोदसा रजः ततृदानाः ) वेग से शत्रु जन को काटते हुए आगे बढ़ें और ( वि-मोचने ) भाग छूटने पर (विवर्त्तन्ते) विविध मार्गों पर गमन करें । विविध व्यूहादि बनावे । विविध चालें चलें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः ॥ मरुतो देवताः ॥ छन्द:-१ भुरिग्गायत्री । ८, १२ गायत्री । २ निचृद् बृहती । ९ स्वराड्बृहती । १४ बृहती । ३ अनुष्टुप् । ४, ५ उष्णिक् । १०, १५ विराडुष्णिक् । ११ निचृदुष्णिक् । ६, १६ पंक्तिः ७, १३ निचृत्पंक्तिः ॥ षोडशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
धेनवः यथा-अश्वाः इव
पदार्थ
[१] (ततृदाना:) = मेघों का विदारण करते हुए (सिन्धवः) = वहनेवाले ये वृष्टिवाहक वायु (क्षोदसा) = उदक से, पानी से (रजः) = अन्तरिक्ष में (प्रसस्त्रः) = गतिवाले होते हैं, अन्तरिक्ष में आगे और आगे बढ़ते हैं। (यथा) = जैसे (धेनवः) = गौवें दूध के साथ बछड़े की ओर बढ़ती हैं। उस दूध से जैसे बछड़े का आप्यायन होता है, इसी प्रकार इन वृष्टिजलों से प्राणियों का आप्यायन होता है। [२] (स्यन्ना अश्वाः) = शीघ्र गतिवाले अश्व (इव) = जैसे (अध्वनः विमोचने) = प्राणियों के मार्गविमोक के लिये, रास्ते को तय करने के लिये, होते हैं, इसी प्रकार (यद्) = जब (एन्य:) = नदियाँ (विवर्तन्ते) = विविध मार्गों में चलती हैं तो प्राणियों की जीवन यात्रा की पूर्ति के लिये होती हैं। मरुत् ही वृष्टि द्वारा इन नदियों को प्रवाहित करते हैं और इस प्रकार हमारी जीवन-यात्रा की पूर्ति करनेवाले होते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- मरुतों से बरसाये गये वृष्टिजल हमारा आप्यायन करते हैं और नदियों के प्रवाहों से अन्नादि को देकर ये हमारी जीवन यात्रा को पूर्ण करते हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जशा दूध देणाऱ्या गाई दुधाची वृष्टी करतात तसेच नदी, तलाव, समुद्र इत्यादी व इतर जलाशय पृथ्वीवर वृष्टी करतात. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Released and freely flowing, soaking and breaking the lands with the flood, the rivers flow over and on, irrigating the lands like mother cows feeding the people. Like horses they go on covering and leaving their track behind, the streams revolve as they go on in their circular course of yajna.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The objects of knowledge is described.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
As there are cows to (otherwise) give milk profusely, likewise the rivers sometimes break the earth with their waters. ( during floods. Ed.) You should take optimum benefit out of the rivers which are very rapid in their movement, like horses traverse the paths.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the cows rain milk ( give in abandonee) so the rivers, seas and tanks etc. cause rains and irrigation,
Foot Notes
(ततृदाना :) भूमि हिन्सवन्तः। तृदिर-हिन्सा नादरयोः (द्ध्०) अत्र हिंसार्थकः । स्यन्दू प्रस्रवणे (भ्वा०) Breaking the earth by floods etc. (स्थना:) अशुगमना: । = Rapidly going. (एन्यः ) या यन्ति ता नद्यः (NG 1, 13 ) = Rivers.
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