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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 53 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 53/ मन्त्र 9
    ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः देवता - मरुतः छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    मा वो॑ र॒सानि॑तभा॒ कुभा॒ क्रुमु॒र्मा वः॒ सिन्धु॒र्नि री॑रमत्। मा वः॒ परि॑ ष्ठात्स॒रयुः॑ पुरी॒षिण्य॒स्मे इत्सु॒म्नम॑स्तु वः ॥९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा । वः॒ । र॒सा । अनि॑तभा । कुभा॑ । क्रुमुः॑ । मा । वः॒ । सिन्धुः॑ । नि । री॒र॒म॒त् । मा । वः॒ । परि॑ । स्था॒त् । स॒रयुः॑ । पु॒री॒षिणी॑ । अ॒स्मे इति॑ । इत् । सु॒म्नम् । अ॒स्तु॒ । वः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मा वो रसानितभा कुभा क्रुमुर्मा वः सिन्धुर्नि रीरमत्। मा वः परि ष्ठात्सरयुः पुरीषिण्यस्मे इत्सुम्नमस्तु वः ॥९॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मा। वः। रसा। अनितभा। कुभा। क्रुमुः। मा। वः। सिन्धुः। नि। रीरमत्। मा। वः। परि। स्थात्। सरयुः। पुरीषिणी। अस्मे इति। इत्। सुम्नम्। अस्तु। वः ॥९॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 53; मन्त्र » 9
    अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वद्भिः किमुपदेष्टव्यमित्याह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! अनितभा कुभा क्रुमू रसा मा वो नि रीरमत् सिन्धुर्मा वो नि रीरमत्। सरयुः पुरीषिणी मा वः परि ष्ठाद्येनाऽस्मे वश्च सुम्नमिदस्तु ॥९॥

    पदार्थः

    (मा) निषेधे (वः) युष्मान् (रसा) पृथिवी (अनितभा) अप्राप्तदीप्तिः (कुभा) कुत्सितप्रकाशा (क्रुमुः) क्रमिता (मा) (वः) युष्मान् (सिन्धुः) नदी समुद्रो वा (नि) निरताम् (रीरमत्) रमयेत् (मा) (वः) युष्मान् (परि) (स्थात्) तिष्ठेत् (सरयुः) यः सरति (पुरीषिणी) पुर इषिणी (अस्मे) अस्मभ्यम् (इत्) एव (सुम्नम्) सुखम् (अस्तु) भवतु (वः) युष्मभ्यम् ॥९॥

    भावार्थः

    मनुष्यैरेवं पुरुषार्थः कर्त्तव्यो यथा सर्वे पदार्थाः सुखप्रदाः स्युः ॥९॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्वानों को क्या उपदेश देना योग्य है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (अनितभा) दीप्ति को न प्राप्त (कुभा) कुत्सित प्रकाशयुक्त (क्रुमुः) क्रमण करनेवाली (रसा) पृथिवी (मा) मत (वः) आप लोगों को (नि) अत्यन्त (रीरमत्) रमण करावे और (सिन्धुः) नदी वा समुद्र (मा) नहीं (वः) आप लोगों को निरन्तर रमण करावें तथा (सरयुः) चलनेवाला और (पुरीषिणी) पुरों की इच्छा करनेवाली (मा) मत (वः) आप लोगों को (परि, स्थात्) परिस्थित करावे अर्थात् मत आलसी बनावे जिससे (अस्मे) हम लोगों के लिये और (वः) आप लोगों के लिये (सुम्नम्) सुख (इत्) ही (अस्तु) हो ॥९॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि इस प्रकार का पुरुषार्थ करें कि जिस प्रकार सम्पूर्ण पदार्थ सुख देनेवाले होवें ॥९॥

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    विषय

    परिहारयोग्य स्थान ।

    भावार्थ

    भा०-हे प्रजाजनो ! व्यापारियो और वीर पुरुषो ! (अनितभा) जिस भूमि या गहरी नदी आदि जलमयी खाई में सूर्य की कान्ति न जाती हो, ( कुभा ) वा कान्ति या दीप्ति बुरी, न्यून, अति कष्टदायी रूप से पड़े ऐसी (रसा) भूमि वा नदी (वः) आप लोगों को ( मा नीरीरमत् ) कभी निरन्तर विहार के योग्य न हो। इसी प्रकार ( क्रुमुः सिन्धुः) ऊंची तरड्गें फेंकने वाला महानद वा सागर भी ( मा निरीरमत ) निरन्त निवास के लिये न हो । ( पुरीषिणी सरयुः ) जल वाली नदी या नहर ( वः परिस्थात् ) आप लोगों के आगे बाधक रूप से न आये । ( अस्मे इत् वः ) हम और आप सब लोगों को सदा ( सुम्नम् अस्तु ) सुख प्राप्त हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः ॥ मरुतो देवताः ॥ छन्द:-१ भुरिग्गायत्री । ८, १२ गायत्री । २ निचृद् बृहती । ९ स्वराड्बृहती । १४ बृहती । ३ अनुष्टुप् । ४, ५ उष्णिक् । १०, १५ विराडुष्णिक् । ११ निचृदुष्णिक् । ६, १६ पंक्तिः ७, १३ निचृत्पंक्तिः ॥ षोडशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    रसा-सिन्धु-सरयुः

    पदार्थ

    [१] हे (मरुतो) = प्राणो! (वः) = तुम्हें यह (रसा) = अंग-प्रत्यंग में रसवाला, लोचलचकवाला, खूब स्वस्थ शरीर, जो (अनितभा) = [न+इत+भा] अप्राप्त ज्ञानदीप्तिवाला है अथवा (कुभा) = कुत्सित ज्ञानदीप्तिवाला अथवा अत्यल्प ज्ञानदीप्तिवाला है, वह शरीर (मा निरीरमत्) = मत आनन्दित करे। अर्थात् ये प्राण केवल शरीर को ही स्वस्थ बनानेवाले न हों। [२] (व:) = तुम्हें यह (क्रुमुः) = अत्यन्त श्रमशील इधर-उधर गतिवाला (सिन्धुः) = हृदयान्तरिक्ष भी (मा) = मत रोक ले। तुम केवल हृदय को ही निरुद्ध करने में न लगे रहो। [२] और हे प्राणो ! यह (पुरीषिणी) = ज्ञान-जल से परिपूर्ण (सरयुः) = सब विषयों में गतिवाली, सब विषयों का ज्ञान देनेवाली, ज्ञान-नदी भी, बुद्धि भी (मा) = मत (व:) = तुम्हें (परिष्ठात्) = चारों ओर से घेर ले। अर्थात् तुम केवल बुद्धि के चारों ओर ही न लगे रहो। तुम्हारे द्वारा होनेवाला परिमार्जन का काम 'शरीर, मन व बुद्धि' तीनों को ही अपना विषय बनाएँ । तुम्हारी साधना से जहाँ शरीर स्वस्थ व नीरोग बने, वहाँ मन संयत व निर्दोष हो तथा बुद्धि ज्ञानजल से परिपूर्ण व सब विषयों में गतिवाली हो। इस प्रकार हे प्राणो! (अस्मे) = हमारे लिये (वः) = तुम्हारे से दिया जानेवाला (सुम्नम्) = आनन्द (अस्तु) = हो। हमारा जीवन त्रिविध उन्नति से पूर्ण आनन्द को प्राप्त करे।

    भावार्थ

    भावार्थ - हमारी प्राणसाधना 'शरीर, मन व बुद्धि' तीनों का व्यापन करती हुई हमें सुख व आनन्द प्राप्त कराये।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी अशा प्रकारचा पुरुषार्थ करावा की ज्यामुळे संपूर्ण पदार्थ सुख देणारे असावेत. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    May the earth and her environment never move without light and water for you. May the flowing river and the rolling sea never stop for you. May the wind and vapour, blowing, flowing and refreshing for human habitations never be still. May everything, every force of the Maruts, on the earth and in the environment be for your comfort and well being. Let nothing hold you back.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should the enlightened person preach is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O thoughtful men ! Let not the earth which is devoid of light and or of little lustre, and revolving around the sun) make you hold back from your goal. Let not a river or an ocean hold you fact (actually). Let no man who goes on moving or a woman who goes on constantly or desires to enjoy in a city restrain you, so that you and we may enjoy real happiness.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should labour in such a manner that all his belongings may give happiness to them.

    Translator's Notes

    Sayanacharya, Prof. Wilson, Griffith and others have erroneously taken अनितभा, कुभा, क्रम, सिन्धु, सरयु and पुरीषिणी as Proper Nouns denoting some rivers, as that is against the fundamental principles of the Vedic Terminology (Nirukta. Ed.). Griffith's footnote shows how uncertain and merely conjectural are the meanings given in their translation. "Rasa-a river, probably an attribute of the Sindhu or Indus as Anitatha also seems to be". Sarayu-probably a river in the Punjab (Vol.I.P. 522 Hymns of the Rigveda). Can we rely upon such mere guesswork full of many probabilities)?

    Foot Notes

    (रसा ) पृथिवी । रसादिगुणयुक्ता | = Earth. (अनितभा) अप्राप्तदीप्ति: । = Devoid of light. (कुभा ) कुत्सितप्रकाशा | = Of little lustre. (सरयुः) यः सरति। = A man moving continuously. (पुरीषिणी ) पुर इषिणी । (पुरीषिणी ) । स एष प्राण एव यत्पुरीषम् तद्वती प्राणवलवती स्त्री (Stph 8, 7, 3, 6)। = Going forward or desiring to enjoy in a city.

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