ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 68/ मन्त्र 1
ऋषिः - यजत आत्रेयः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
प्र वो॑ मि॒त्राय॑ गायत॒ वरु॑णाय वि॒पा गि॒रा। महि॑क्षत्रावृ॒तं बृ॒हत् ॥१॥
स्वर सहित पद पाठप्र । वः॒ । मि॒त्राय॑ । गा॒य॒त॒ । वरु॑णाय । वि॒पा । गि॒रा । महि॑ऽक्षत्रौ । ऋ॒तम् । बृ॒हत् ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र वो मित्राय गायत वरुणाय विपा गिरा। महिक्षत्रावृतं बृहत् ॥१॥
स्वर रहित पद पाठप्र। वः। मित्राय। गायत। वरुणाय। विपा। गिरा। महिऽक्षत्रौ। ऋतम्। बृहत् ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 68; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
विषय - क्षत्र - ऋत
पदार्थ -
[१] ये मनुष्यो ! (वः) = तुम [यूयम् सा०] (मित्राय) = स्नेह की देवता के लिये (विपा) = स्तुतियों के द्वारा [विप् praise] तथा (गिरा) = ज्ञान की वाणियों के द्वारा (गायत) = गायन करो। इसी प्रकार (वरुणाय) = निर्देषता के लिये गायन करो । इन दोनों को ही तुम धारण करनेवाले बनो । [२] ये मित्र और वरुण (महिक्षत्रौ) = तुम्हारे लिये महान् बल को धारण करनेवाले होंगे। ये तुम्हारे जीवनों में 'बृहत् ऋतम्' वृद्धि की कारणभूत नियमितता को अथवा यज्ञिय भावना को उत्पन्न करेंगे। भावार्थ - स्नेह व निर्देषता से हमारा जीवन [१] बल- सम्पन्न होता है तथा [२] नियमित व यज्ञभावना युक्त बनता है।