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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 68 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 68/ मन्त्र 2
    ऋषिः - यजत आत्रेयः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    स॒म्राजा॒ या घृ॒तयो॑नी मि॒त्रश्चो॒भा वरु॑णश्च। दे॒वा दे॒वेषु॑ प्रश॒स्ता ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒म्ऽराजा॑ । या । घृ॒तयो॑नी॒ इति॑ घृ॒तऽयो॑नी । मि॒त्रः । च॒ । उ॒भा । वरु॑णः । च॒ । दे॒वा । दे॒वेषु॑ । प्र॒ऽश॒स्ता ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सम्राजा या घृतयोनी मित्रश्चोभा वरुणश्च। देवा देवेषु प्रशस्ता ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम्ऽराजा। या। घृतयोनी इति घृतऽयोनी। मित्रः। च। उभा। वरुणः। च। देवा। देवेषु। प्रऽशस्ता ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 68; मन्त्र » 2
    अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 6; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    [१] (या मित्रः च वरुणः च) = ये जो मित्र और वरुण हैं, ये (उभा) = दोनों स्नेह व निर्देषता के भाव (सम्राजा) = हमारे जीवनों को दीप्त करनेवाले हैं। (घृतयोनी) = ये ज्ञानदीप्ति व मल विनाशनिर्मलता को उत्पन्न करनेवाले हैं। [२] (देवा देवेषु) = जो जीवनों को दिव्यगुण- सम्पन्न बनानेवाले हैं और प्रशस्ता अत्यन्त प्रशंसनीय है। इनका हम स्तवन करें और इन्हें धारण करने का प्रयत्न करें।

    भावार्थ - भावार्थ- स्नेह व निर्देषता के धारण से हमारा जीवन दीप्त, ज्ञानयुक्त व दिव्यगुण सम्पन्न - बनेगा।

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