ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 76/ मन्त्र 2
न सं॑स्कृ॒तं प्र मि॑मीतो॒ गमि॒ष्ठान्ति॑ नू॒नम॒श्विनोप॑स्तुते॒ह। दिवा॑भिपि॒त्वेऽव॒साग॑मिष्ठा॒ प्रत्यव॑र्तिं दा॒शुषे॒ शंभ॑विष्ठा ॥२॥
स्वर सहित पद पाठन । सं॒स्कृ॒तम् । प्र । मि॒मी॒तः॒ । गमि॑ष्ठा । अन्ति॑ । नू॒नम् । अ॒श्विना॑ । उप॑ऽस्तुता । इ॒ह । दि॒वा॑ । अ॒भि॒ऽपि॒त्वे । अव॑सा । आऽग॑मिष्ठा । प्रति॑ । अव॑र्तिम् । दा॒शुषे॑ । शम्ऽभ॑विष्ठा ॥
स्वर रहित मन्त्र
न संस्कृतं प्र मिमीतो गमिष्ठान्ति नूनमश्विनोपस्तुतेह। दिवाभिपित्वेऽवसागमिष्ठा प्रत्यवर्तिं दाशुषे शंभविष्ठा ॥२॥
स्वर रहित पद पाठन। संस्कृतम्। प्र। मिमीतः। गमिष्ठा। अन्ति। नूनम्। अश्विना। उपऽस्तुता। इह। दिवा। अभिऽपित्वे। अवसा। आऽगमिष्ठा। प्रति। अवर्त्तिम्। दाशुषे। शम्ऽभविष्ठा ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 76; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
विषय - शम्भविष्ठा
पदार्थ -
[१] हे (अश्विना) = प्राणापानो! आप (संस्कृतम्) = शरीर, मन व बुद्धि के परिष्कार को (न प्रमिमीत:) = हिंसित नहीं करते हो (उपस्तुता) = स्तुत हुए हुए आप (नूनम्) = निश्चय से (इह) = इस जीवन में (अन्ति गमिष्ठा) = समीपता से प्राप्त होते हो। (दिवा अभिपित्वे) = [अभिपतने] दिन के निकलते ही (अवसा) = रक्षण के हेतु से (आगमिष्ठा) = आप हमें प्राप्त होते हो। [२] हमें प्राप्त होकर आप (अवर्ति प्रति) = सब दौर्भाग्यों पर [गमिष्ठा] आक्रमण करनेवाले होते हो। शरीरस्थ सब दौर्भाग्यों को आप दूर करते हो। सब दौर्भाग्यों को दूर करके (दाशुषे) = दाश्वान् के लिये, आपके प्रति अपना अर्पण करनेवाले के लिये आप (शंभविष्ठा) = अधिक से अधिक शान्ति को देनेवाले होते हो ।
भावार्थ - भावार्थ- प्राणसाधना से 'शरीर, मन व बुद्धि' का संस्कार ठीक बना रहता है। सब प्रकार के दौर्भाग्यों का दूरीकरण होकर शान्ति प्राप्त होती है ।
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