ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 17/ मन्त्र 15
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - आर्च्युष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
अ॒या वाजं॑ दे॒वहि॑तं सनेम॒ मदे॑म श॒तहि॑माः सु॒वीराः॑ ॥१५॥
स्वर सहित पद पाठअ॒या । वाज॑म् । दे॒वऽहि॑तम् । स॒ने॒म॒ । मदे॑म । श॒तऽहि॑माः । सु॒ऽवीराः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अया वाजं देवहितं सनेम मदेम शतहिमाः सुवीराः ॥१५॥
स्वर रहित पद पाठअया। वाजम्। देवऽहितम्। सनेम। मदेम। शतऽहिमाः। सुऽवीराः ॥१५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 17; मन्त्र » 15
अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 3; मन्त्र » 5
अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 3; मन्त्र » 5
विषय - देवहित वाजं -
पदार्थ -
[१] (अया) = इस स्तवन के द्वारा अथवा गत मन्त्र में वर्णित 'पारणीय ज्ञान' के द्वारा हम (देवहितम्) = देववृत्ति के पुरुषों में स्थापित (वाजम्) = बल को (सनेम) = प्राप्त करें। दानवी बल को नहीं, अपितु देवहित बल को हम प्राप्त करनेवाले हों। [२] इस बल को प्राप्त करके हम (सुवीराः) = उत्तम वीर सन्तानोंवाले (शतहिमा:) = सौ वर्ष के दीर्घ जीवनवाले होते हुए (मदेम) = आनन्द का अनुभव करें।
भावार्थ - भावार्थ- देवों के बल को प्राप्त करते हुए हम सुवीर व शतहिम [सौ वर्ष के जीवनवाले] बनें और इस प्रकार आनन्दित हों। अगले सूक्त में भी 'भरद्वाज बार्हस्पत्य' इन्द्र का स्तवन करते हैं -
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