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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 36 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 36/ मन्त्र 2
    ऋषिः - नरः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अनु॒ प्र ये॑जे॒ जन॒ ओजो॑ अस्य स॒त्रा द॑धिरे॒ अनु॑ वी॒र्या॑य। स्यू॒म॒गृभे॒ दुध॒येऽर्व॑ते च॒ क्रतुं॑ वृञ्ज॒न्त्यपि॑ वृत्र॒हत्ये॑ ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अनु॑ । प्र । ये॒जे॒ । जनः॑ । ओजः॑ । अ॒स्य॒ । स॒त्रा । द॒धि॒रे॒ । अनु॑ । वी॒र्या॑य । स्यू॒म॒ऽगृभे॑ । दुध॑ये । अर्व॑ते । च॒ । क्रतु॑म् । वृ॒ञ्ज॒न्ति॒ । अपि॑ । वृ॒त्र॒ऽहत्ये॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अनु प्र येजे जन ओजो अस्य सत्रा दधिरे अनु वीर्याय। स्यूमगृभे दुधयेऽर्वते च क्रतुं वृञ्जन्त्यपि वृत्रहत्ये ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अनु। प्र। येजे। जनः। ओजः। अस्य। सत्रा। दधिरे। अनु। वीर्याय। स्यूमऽगृभे। दुधये। अर्वते। च। क्रतुम्। वृञ्जन्ति। अपि। वृत्रऽहत्ये ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 36; मन्त्र » 2
    अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 8; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    [१] (जनः) = अपनी शक्तियों का विकास करनेवाला मनुष्य (अस्य) = इस प्रभु के के (अनु) = अनुसार (प्रयेजे) = प्रकृष्ट यज्ञों को करनेवाला होता है। ये मनुष्य (वीर्याय) = वीरतापूर्ण कार्यों को करने के लिये (सत्रा) = सदा (अनुदधिरे) = आपका ही धारण करते हैं। [२] (अपि च) = और ये उपासक (स्यूमगृभे) = [स्यूमान् अविच्छेदेन वर्तमानान् गृह्णाति] अविच्छेदेन वर्तमान-निरन्तर आक्रमण करनेवाले, इन शत्रुओं का निग्रह करनेवाले, (दुधये) = इन शत्रुओं का हिंसन करनेवाले (च) = और (अर्वते) = शत्रुओं पर आक्रमण करनेवाले उस प्रभु के लिये (क्रतुम्) = परिचरणात्मक यज्ञ आदि उत्तम कर्मों को (वृञ्जन्ति) = निष्पादित करते हैं। जिससे (वृत्रहत्ये) = ज्ञान की आवरणभूत इस वासना का विनाश कर सकें।

    भावार्थ - भावार्थ- प्रभु से ओज प्राप्त होता है, प्रभु हमें वीरता के कर्मों के लिये समर्थ करते हैं। वे प्रभु ही इन निरन्तर आक्रमण करनेवाले शत्रुओं का निग्रह करते हैं, इन्हें कम्पित करते हैं और इनको आक्रान्त करके समाप्त करते हैं ।

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