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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 50 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 50/ मन्त्र 15
    ऋषिः - ऋजिश्वाः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    ए॒वा नपा॑तो॒ मम॒ तस्य॑ धी॒भिर्भ॒रद्वा॑जा अ॒भ्य॑र्चन्त्य॒र्कैः। ग्ना हु॒तासो॒ वस॒वोऽधृ॑ष्टा॒ विश्वे॑ स्तु॒तासो॑ भूता यजत्राः ॥१५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒व । नपा॑तः । मम॑ । तस्य॑ । धी॒भिः । भ॒रत्ऽवा॑जाः । अ॒भि । अ॒र्च॒न्ति॒ । अ॒र्कैः । ग्नाः । हु॒तासः॑ । वस॑वः । अधृ॑ष्टाः । विश्वे॑ । स्तु॒तासः॑ । भू॒त॒ । य॒ज॒त्राः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एवा नपातो मम तस्य धीभिर्भरद्वाजा अभ्यर्चन्त्यर्कैः। ग्ना हुतासो वसवोऽधृष्टा विश्वे स्तुतासो भूता यजत्राः ॥१५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एव। नपातः। मम। तस्य। धीभिः। भरत्ऽवाजाः। अभि। अर्चन्ति। अर्कैः। ग्नाः। हुतासः। वसवः। अधृष्टाः। विश्वे। स्तुतासः। भूत। यजत्राः ॥१५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 50; मन्त्र » 15
    अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 10; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    [१] प्रभु कहते हैं कि (एवा) = इस प्रकार (तस्य मम) = उस मेरे (नपातः) = सन्तानरूप (भरद्वाजा:) = अपने में शक्ति का भरण करनेवाले ये उपासक (धीभिः) = बुद्धिपूर्वक किये जानेवाले कर्मों से तथा (अर्कैः) = स्तुति साधन मन्त्रों से (अभ्यर्चन्ति) = पूजन करते हैं। प्रभु का पूजन यज्ञादि कर्मों व स्तुतियों से होता है। [२] (विश्वे) = सब (यजत्राः) = यष्टव्य व पूजनीय देवो! आप (स्तुतासः) = स्तुति किये जाकर (वसवः) = हमारे निवास को उत्तम बनानेवाले व (अधृष्टाः) = शत्रुओं से अधर्षणीय (भूत) = होवो | आपके कारण हम काम-क्रोध आदि शत्रुओं से अभिभूत न हों। (ग्नाः) = ये वेदवाणियाँ (हुतासः) = हमारे द्वारा ज्ञानाग्नि में आहुत की जाएँ। ये वेद वाणियाँ हमारी ज्ञानाग्नि को सुसमिद्ध करनेवाली हों ।

    भावार्थ - भावार्थ- प्रभु के सच्चे पुत्र वे ही हैं जो बुद्धिपूर्वक कर्मों व स्तोत्रों से प्रभु स्तवन करते ज्ञानाग्नि ज्ञान की वाणियों की आहुति देते हैं। दिव्य गुणों के द्वारा ये अपने निवास हैं। ये अपनी में को उत्तम व शत्रुओं से अधर्षणीय बना पाते हैं। अगले सूक्त का ऋषि भी 'ऋजिश्वा' है -

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