ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 51/ मन्त्र 1
उदु॒ त्यच्चक्षु॒र्महि॑ मि॒त्रयो॒राँ एति॑ प्रि॒यं वरु॑णयो॒रद॑ब्धम्। ऋ॒तस्य॒ शुचि॑ दर्श॒तमनी॑कं रु॒क्मो न दि॒व उदि॑ता॒ व्य॑द्यौत् ॥१॥
स्वर सहित पद पाठउत् । ऊँ॒ इति॑ । त्यत् । चक्षुः॑ । महि॑ । मि॒त्रयोः॑ । आ । एति॑ । प्रि॒यम् । वरु॑णयोः । अद॑ब्धम् । ऋ॒तस्य॑ । शुचि॑ । द॒र्श॒तम् । अनी॑कम् । रु॒क्मः । न । दि॒वः । उत्ऽइ॑ता॑ । वि । अ॒द्यौ॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
उदु त्यच्चक्षुर्महि मित्रयोराँ एति प्रियं वरुणयोरदब्धम्। ऋतस्य शुचि दर्शतमनीकं रुक्मो न दिव उदिता व्यद्यौत् ॥१॥
स्वर रहित पद पाठउत्। ऊँ इति। त्यत्। चक्षुः। महि। मित्रयोः। आ। एति। प्रियम्। वरुणयोः। अदब्धम्। ऋतस्य। शुचि। दर्शतम्। अनीकम्। रुक्मः। न। दिवः। उत्ऽइता। वि। अद्यौत् ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 51; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
विषय - 'द्युलोक का भूषण' सूर्य
पदार्थ -
[१] सूर्य के प्रसंग में 'मित्र व वरुण' का भाव दिन व रात्रि से होता है। (त्यत्) = वह प्रसिद्ध (चक्षुः) = प्रकाशक (महि) = महान्, विस्तृत (मित्रयोः वरुणयोः) = दिन-रात्रि के लिये (प्रियम्) = प्रीतिकर (अदब्धम्) = अहिंसित शुचि शुद्ध (दर्शतम्) = दर्शनीय (ऋतस्य अनीकम्) = [ऋ गतौ] आदित्य का तेज (आ उदेति) = सब के अभिमुख उदित होता है, सूर्य के इस तेज के कारण ही दिन व रात्रि का होना होता है। यह सूर्य का तेज रोगकृमियों का संहार करता हुआ हमें हिंसित नहीं होने देता, सो 'अदब्ध' है। नीरोगता को उत्पन्न करनेवाला यह तेज 'शुचि' है । [२] (उदिता) = उदय होने पर (दिवः रुक्मः न) = द्युलोक के स्वर्ण भूषण के समान यह (व्यद्यौत्) = चमकता है। सूर्य द्युलोक का भूषण ही प्रतीत होता है।
भावार्थ - भावार्थ- सूर्य का तेज अत्यन्त प्रीतिकर व हमें न हिंसित होने देनेवाला है। यह उदय हुआहुआ सूर्य द्युलोक का भूषण ही प्रतीत होता है।
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