ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 54/ मन्त्र 10
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - पूषा
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
परि॑ पू॒षा प॒रस्ता॒द्धस्तं॑ दधातु॒ दक्षि॑णम्। पुन॑र्नो न॒ष्टमाज॑तु ॥१०॥
स्वर सहित पद पाठपरि॑ । पू॒षा । प॒रस्ता॑त् । हस्त॑म् । द॒धा॒तु॒ । दक्षि॑णम् । पुनः॑ । नः॒ । न॒ष्टम् । आ । अ॒ज॒तु॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
परि पूषा परस्ताद्धस्तं दधातु दक्षिणम्। पुनर्नो नष्टमाजतु ॥१०॥
स्वर रहित पद पाठपरि। पूषा। परस्तात्। हस्तम्। दधातु। दक्षिणम्। पुनः। नः। नष्टम्। आ। अजतु ॥१०॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 54; मन्त्र » 10
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 20; मन्त्र » 5
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 20; मन्त्र » 5
विषय - इन्द्रियों की अन्तर्मुखता
पदार्थ -
[१] (पूषा) = पोषक प्रभु (परस्तात्) = सुदूर देश में जाती हुई, विषयों में भटकती हुई इन इन्द्रियरूप गौवों के रक्षण के लिये (दक्षिणं हस्तं परिदधातु) = दाहिने हाथ को निवारक बनाये [परिधानं निवारकम्] । प्रभु हमारी इन इन्द्रियरूप गौवों को विषयों में न जाने दें। [२] प्रभु के अनुग्रह से (नष्टम्) = [ णश अदर्शने] सुदूर विषयों में गया हुआ (नः) = हमारा यह गोधन (पुनः) = फिर (आजतु) = हमारे समीप प्राप्त हो [आगच्छतु] विषय विनिवृत्त होकर ये अन्दर ही स्थित हों। ये इन्द्रियाँ बहिर्मुखी न बनी रहें ।
भावार्थ - भावार्थ- प्रभु दूर भागती हुई इन्द्रियों को दाहिने हाथ से रोकें। ये हमारी इन्द्रियाँ हों,हमें प्राप्त अन्तर्मुखी बनी रहें । अगले सूक्त के ऋषि देवता वही 'भरद्वाज बार्हस्पत्य' तथा 'पूषा' ही हैं-
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