ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 55/ मन्त्र 1
एहि॒ वां वि॑मुचो नपा॒दाघृ॑णे॒ सं स॑चावहै। र॒थीर्ऋ॒तस्य॑ नो भव ॥१॥
स्वर सहित पद पाठआ । इ॒हि॒ । वाम् । वि॒ऽमु॒चः॒ । न॒पा॒त् । आघृ॑णे । सम् । स॒चा॒व॒है॒ । र॒थीः । ऋ॒तस्य॑ । नः॒ । भ॒व॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
एहि वां विमुचो नपादाघृणे सं सचावहै। रथीर्ऋतस्य नो भव ॥१॥
स्वर रहित पद पाठआ। इहि। वाम्। विऽमुचः। नपात्। आघृणे। सम्। सचावहै। रथीः। ऋतस्य। नः। भव ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 55; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
विषय - प्रभु स्मरण व यज्ञशीलता
पदार्थ -
[१] हे (आधृणे) = सर्वतो दीप्त, (विमुचः नपात्) = अपने को विषयों से छुड़ानेवाले को न गिरने देनेवाले, विषय-व्यावृत्ति प्रवण पुरुष को बचानेवाले प्रभो ! मुझ (वाम्) = गतिशील को एहि प्राप्त होइये। (सं सचावहै) = आप और मैं संसक्त हो जायें, मिल जायें, कभी अलग न हों। मैं आपको कभी भूल न जाऊँ। [२] हे प्रभो ! (न) = हमारे (ऋतस्य) = यज्ञात्मक कर्मों के (रथी:) = नेता (भव) = होइये । आपके अनुग्रह से हमारे यज्ञात्मक कर्म सदा प्रवृत्त रहें। हम इन यज्ञों से आपका पूजन करते रहें।
भावार्थ - भावार्थ- मैं कभी प्रभु को भूल न जाऊँ । प्रभु के अनुग्रह से सदा यज्ञात्मक कर्मों में प्रवृत्त रहूँ ।
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