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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 19 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 19/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    त्वं ह॒ त्यदि॑न्द्र॒ कुत्स॑मावः॒ शुश्रू॑षमाणस्त॒न्वा॑ सम॒र्ये। दासं॒ यच्छुष्णं॒ कुय॑वं॒ न्य॑स्मा॒ अर॑न्धय आर्जुने॒याय॒ शिक्ष॑न् ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । ह॒ । त्यत् । इ॒न्द्र॒ । कुत्स॑म् । आ॒वः॒ । शुश्रू॑षमाणः । त॒न्वा॑ । स॒ऽम॒र्ये । दास॑म् । यत् शुष्ण॑म् । कुय॑वम् । नि । अ॒स्मै॒ । अर॑न्धयः । आ॒र्जु॒ने॒याय॑ । शिक्ष॑न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं ह त्यदिन्द्र कुत्समावः शुश्रूषमाणस्तन्वा समर्ये। दासं यच्छुष्णं कुयवं न्यस्मा अरन्धय आर्जुनेयाय शिक्षन् ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। ह। त्यत्। इन्द्र। कुत्सम्। आवः। शुश्रूषमाणः। तन्वा। सऽमर्ये। दासम्। यत् शुष्णम्। कुयवम्। नि। अस्मै। अरन्धयः। आर्जुनेयाय। शिक्षन् ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 19; मन्त्र » 2
    अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 29; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    [१] हे (इन्द्र) = शत्रुसंहारक प्रभो ! (त्वम्) = आप (ह) = निश्चय से (कुत्सम्) = वासनाओं का संहार करनेवाले पुरुष को (आव:) = रक्षित करते हैं । (त्यद्) = तब वह (समर्ये) = इस जीवन संग्राम में (तत्वा) = शक्तियों के विस्तार के साथ (शुश्रूषमाणः) = विद्या के श्रवण की कामनावाला होता है तथा गुरुजनों की सेवा की कामनावाला होता है। [२] (यत्) = जब (अस्मै) = इस कुत्स के लिये आप (दासम्) = उपक्षय करनेवाले क्रोध को, (शुष्णम्) = सुखा देनेवाली काम-वासना को तथा (कुयम्) = सब बुराइयों का हमारे साथ मिश्रण करनेवाले लोभ को (नि अरन्धयः) = निश्चय से विनष्ट करते हैं, तो (आर्जुनेयाय) = इस अर्जुनी [श्वेता = शुद्धा] के पुत्र के लिये, अर्थात् अतिशयेन शुद्ध जीवनवाले के लिये (शिक्षन्) = धनों के देने की कामनावाले होते हैं। आप से प्रदत्त इन धनों से यज्ञ आदि को सिद्ध करता हुआ यह अपने जीवन को धन्य बना पाता है।

    भावार्थ - भावार्थ- शरीर की शक्तियों के विस्तार के साथ वासनाओं का संहार करनेवाला कुत्स जीवन संग्राम में विद्या का श्रवण करता है, बड़ों की सेवा करता है। प्रभु इसके क्रोध, काम व लोभ को विनष्ट करते हैं और इस शुद्ध जीवनवाले पुरुष के लिये धनों को देते हैं।

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