ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 19/ मन्त्र 2
त्वं ह॒ त्यदि॑न्द्र॒ कुत्स॑मावः॒ शुश्रू॑षमाणस्त॒न्वा॑ सम॒र्ये। दासं॒ यच्छुष्णं॒ कुय॑वं॒ न्य॑स्मा॒ अर॑न्धय आर्जुने॒याय॒ शिक्ष॑न् ॥२॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । ह॒ । त्यत् । इ॒न्द्र॒ । कुत्स॑म् । आ॒वः॒ । शुश्रू॑षमाणः । त॒न्वा॑ । स॒ऽम॒र्ये । दास॑म् । यत् शुष्ण॑म् । कुय॑वम् । नि । अ॒स्मै॒ । अर॑न्धयः । आ॒र्जु॒ने॒याय॑ । शिक्ष॑न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं ह त्यदिन्द्र कुत्समावः शुश्रूषमाणस्तन्वा समर्ये। दासं यच्छुष्णं कुयवं न्यस्मा अरन्धय आर्जुनेयाय शिक्षन् ॥२॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। ह। त्यत्। इन्द्र। कुत्सम्। आवः। शुश्रूषमाणः। तन्वा। सऽमर्ये। दासम्। यत् शुष्णम्। कुयवम्। नि। अस्मै। अरन्धयः। आर्जुनेयाय। शिक्षन् ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 19; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 29; मन्त्र » 2
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अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 29; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुना राजविषयमाह ॥
अन्वयः
हे इन्द्र राजँस्त्वं सूर्य इव त्यत्कुत्सं दुष्टानामुपरि प्रहृत्य भद्रिकाः प्रजा आवः शुश्रूषमाणस्त्वं तन्वा समर्ये होत्तमा सेना आवो यद्यं शुष्णं कुयवं दासं न्यरन्धयोऽस्मा आर्जुनेयायाशिक्षन्नविद्यां हिंस्याः ॥२॥
पदार्थः
(त्यम्) (ह) खलु (त्यत्) (इन्द्र) सूर्य इव प्रतापयुक्त (कुत्सम्) विद्युतमिव वज्रम् (आवः) रक्षेः (शुश्रूषमाणः) श्रोतुमिच्छमानो विद्याश्रवणाय सेवां कुर्वाणः (तन्वा) शरीरेण (समर्ये) (दासम्) दातारं सेवकं वा (यत्) यम् (शुष्णम्) शोषकं बलवन्तम् (कुयवम्) कुत्सिता यवा अन्नादि यस्य तम् (नि) (अस्मै) (अरन्धयः) हिंसयेः (आर्जुनेयाय) अर्जुन्याः सुरूपवत्या विदुष्याः पुत्राय (शिक्षन्) विद्योपार्जनं कारयन् ॥२॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्या विद्याप्राप्तय आप्तानध्यापकान् शुश्रूषन्ते शरीरात्मबलं विधाय संग्रामे दुष्टान् विजयन्ते विद्याध्ययनविरहाँस्तिरस्कृत्य विद्याभ्यासकान् सत्कुर्वन्ति ते स्थिरं राज्यैश्वर्यं प्राप्नुवन्ति ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर राजविषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) सूर्य के समान प्रतापयुक्त राजा (त्वम्) आप सूर्य के समान (त्यत्) उस (कुत्सम्) बिजुली के तुल्य वज्र को दुष्टों पर प्रहार कल्याण करनेवाली प्रजा की (आवः) पालना कीजिये (शुश्रूषमाणः) सुनने की इच्छा करनेवाले आप (तन्वा) शरीर से (समर्ये) संग्राम में (ह) ही उत्तम सेना की रक्षा कीजिये (यत्) और जिस (शुष्णम्) शुष्क करने वा (कुवयम्) कुत्सित यव आदि अन्न रखनेवाले (दासम्) दाता वा सेवक को (नि, अरन्धयः) नहीं मारते (अस्मै) इस (आर्जुनेयाय) सुन्दर रूपवती विदुषी के पुत्र के निमित्त (शिक्षन्) विद्या इकट्ठी कराते हुए अविद्या को हनो ॥२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य विद्याप्राप्ति के लिये आप्त, श्रेष्ठ, विद्वान् अध्यापकों की शुश्रूषा करते शरीर और आत्मा के बल का विधान कर संग्राम में दुष्टों को जीतते और विद्याध्ययन से रहित जनों का तिरस्कार करते, विद्याभ्यास करनेवालों का सत्कार करते हैं, वे स्थिर राज्यैश्वर्य्य को प्राप्त होते हैं ॥२॥
विषय
मुख्य पद के योग्य गुण । उसके प्रयोजन। शत्रु विनाश का उपदेश ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! ( त्वं ह ) तू निश्चय ही ( त्यत् कुत्सम् ) उस शत्रु को काट गिराने वाले शस्त्र बल को (आव:) प्राप्त कर । ( शुश्रूषमाणः ) उत्तम ज्ञान और प्रजा की प्रार्थना को ध्यानपूर्वक सुनता हुआ ( तन्वा ) विस्तृत राष्ट्रबल वा सैन्य बल से (अस्मै आर्जुनेयाय) इस पृथ्वी के ऊपर रहने वाले प्रजाजन के उपकार के लिये ( दासं ) प्रजा के नाशक, ( शुष्णं ) प्रजा को शोषण करने वाले ( कु-यवम् ) निन्दित अन्न खाने वाले वा कुत्सित उपायों से मारने योग्य पुरुष को (शिक्षन् ) शिक्षा देता हुआ ( अरन्धयः ) दण्डित और विनाश कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः।। इन्द्रो देवता ॥ छन्दः - १, ५ त्रिष्टुप् । ३, ६ निचृत्त्रिष्टुप् । ७, ९, १० विराट् त्रिष्टुप् । २ निचृत्पंक्ति: । ४ पंक्ति: । ८, ११ भुरिक् पंक्तिः ॥॥ एकादशर्चं सूक्तम् ।।
विषय
'दास-शुष्ण व कुयव' का विनाश
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = शत्रुसंहारक प्रभो ! (त्वम्) = आप (ह) = निश्चय से (कुत्सम्) = वासनाओं का संहार करनेवाले पुरुष को (आव:) = रक्षित करते हैं । (त्यद्) = तब वह (समर्ये) = इस जीवन संग्राम में (तत्वा) = शक्तियों के विस्तार के साथ (शुश्रूषमाणः) = विद्या के श्रवण की कामनावाला होता है तथा गुरुजनों की सेवा की कामनावाला होता है। [२] (यत्) = जब (अस्मै) = इस कुत्स के लिये आप (दासम्) = उपक्षय करनेवाले क्रोध को, (शुष्णम्) = सुखा देनेवाली काम-वासना को तथा (कुयम्) = सब बुराइयों का हमारे साथ मिश्रण करनेवाले लोभ को (नि अरन्धयः) = निश्चय से विनष्ट करते हैं, तो (आर्जुनेयाय) = इस अर्जुनी [श्वेता = शुद्धा] के पुत्र के लिये, अर्थात् अतिशयेन शुद्ध जीवनवाले के लिये (शिक्षन्) = धनों के देने की कामनावाले होते हैं। आप से प्रदत्त इन धनों से यज्ञ आदि को सिद्ध करता हुआ यह अपने जीवन को धन्य बना पाता है।
भावार्थ
भावार्थ- शरीर की शक्तियों के विस्तार के साथ वासनाओं का संहार करनेवाला कुत्स जीवन संग्राम में विद्या का श्रवण करता है, बड़ों की सेवा करता है। प्रभु इसके क्रोध, काम व लोभ को विनष्ट करते हैं और इस शुद्ध जीवनवाले पुरुष के लिये धनों को देते हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे विद्याप्राप्तीसाठी आप्त श्रेष्ठ विद्वान अध्यापकांची शुश्रूषा करतात. शरीर व आत्म्याच्या बलाचे नियम बनवून युद्धात दुष्टांना जिंकून विद्याध्ययनरहित लोकांचा तिरस्कार करून विद्याभ्यास करणाऱ्यांचा सत्कार करतात ते स्थिर राज्यैश्वर्य प्राप्त करतात. ॥ २ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, brilliant ruler, you govern and strike your thunderbolt of justice and punishment, listen to the voice of the people in the battle business of life and protect the sagely man of judgement and discretion with your force when you fight the demon of drought, punish the selfish exploiter and food polluter and help and arrange for the education of the children of noble mothers all for our sake.
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