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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 19 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 19/ मन्त्र 11
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिक्पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    नू इ॑न्द्र शूर॒ स्तव॑मान ऊ॒ती ब्रह्म॑जूतस्त॒न्वा॑ वावृधस्व। उप॑ नो॒ वाजा॑न्मिमी॒ह्युप॒ स्तीन्यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः ॥११॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नु । इ॒न्द्र॒ । शू॒र॒ । स्तव॑मानः । ऊ॒ती । ब्रह्म॑ऽजूतः । त॒न्वा॑ । व॒वृ॒ध॒स्व॒ । उप॑ । नः॒ । वाजा॑न् । मि॒मी॒हि॒ । उप॑ । स्तीन् । यू॒यम् । पा॒त॒ । स्व॒स्तिऽभिः॑ । सदा॑ । नः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नू इन्द्र शूर स्तवमान ऊती ब्रह्मजूतस्तन्वा वावृधस्व। उप नो वाजान्मिमीह्युप स्तीन्यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ॥११॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नु। इन्द्र। शूर। स्तवमानः। ऊती। ब्रह्मऽजूतः। तन्वा। ववृधस्व। उप। नः। वाजान्। मिमीहि। उप। स्तीन्। यूयम्। पात। स्वस्तिऽभिः। सदा। नः ॥११॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 19; मन्त्र » 11
    अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 30; मन्त्र » 6
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुना राजविषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे शूरेन्द्र ! त्वं स्तवमानो ब्रह्मजूत ऊती तन्वा वावृधस्व स्तीन् वाजान्न उपमिमीहि नु सद्यः शत्रुबलमुपमिमीहि। हे भृत्या ! यूयं स्वस्तिभिर्नः सदा पात ॥११॥

    पदार्थः

    (नू) सद्यः। अत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (इन्द्रः) शत्रूणां विदारक (शूर) निर्भय सेनेश (स्तवमानः) सर्वान् योद्धॄन् वीररसयुक्तव्याख्यानेनोत्साहयन् (ऊती) सम्यग्रक्षया (ब्रह्मजूतः) ब्रह्मणा धनेनान्नेन युक्तः (तन्वा) शरीरेण (वावृधस्व) भृशं वर्धस्व (उप) (नः) अस्मान् (वाजान्) बलवेगादियुक्तान् (मिमीहि) मान्यं कुरु (उप) (स्तीन्) संहतान् मिलितान् (यूयम्) (पात) (स्वस्तिभिः) सुखैः (सदा) (नः) अस्मान् ॥११॥

    भावार्थः

    हे सेनेश ! त्वं यथा स्वशरीरबलं वर्धयसि तथैव सर्वेषां योद्धॄणां शरीरबलं वर्धय यथा भृत्यास्त्वां रक्षेयुस्तथा त्वमप्येतान् सततं रक्षेति ॥११॥ अत्रेन्द्रदृष्टान्तेन राजसभासेनेशाऽध्यापकाऽध्येतृराजप्रजाभृत्यकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ अस्मिन्नध्यायेऽग्निवाग्विद्वद्राजप्रजाऽध्यापकाऽध्येतृपृथिव्यादिमेधाविविद्युत्सूर्य्यमेघयज्ञहोतृयजमानसेनासेनापतिगुणकृत्य-वर्णनादेतदध्यायार्थस्य पूर्वाऽध्यायार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इत्यृग्वेदे पञ्चमाष्टके द्वितीयोऽध्यायस्त्रिंशो वर्गः सप्तमे मण्डल एकोनविंशं सूक्तं च समाप्तम् ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर राज विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (शूर) निर्भय सेनापति (इन्द्र) शत्रुओं के विदीर्ण करनेवाले ! आप (स्तवमानः) सब युद्ध करनेवालों को वीररस व्याख्यान से उत्साहित करते हुए और (ब्रह्मजूतः) धन वा अन्न से संयुक्त (ऊती) सम्यक् रक्षा से (तन्वा) शरीर से (वावृधस्व) निरन्तर बढ़ो (स्तीन्) और मिले हुए (वाजान्) बल वेगादियुक्त (नः) हम लोगों का (उपमिमीहि) समीप में मान करो तथा (नु) शीघ्र शत्रुबल को (उप) उपमान करो, हे भृत्य जनो ! (यूयम्) तुम लोग (स्वस्तिभिः) सुखों से (नः) हम लोगों की (सदा) सर्वदा (पात) रक्षा करो ॥११॥

    भावार्थ

    हे सेनापति ! तुम जैसे अपने शरीर और बल को बढ़ाओ, वैसे ही समस्त योद्धाओं के शरीर-बल को बढ़ाओ। जैसे भृत्यजन तुम्हारी रक्षा करें, वैसे तुम भी इनकी निरन्तर रक्षा करो ॥११॥ इस सूक्त में इन्द्र के दृष्टान्त से राजसभा, सेनापति, अध्यापक, अध्येता, राजा, प्रजा और भृत्यजनों के काम का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ इस अध्याय में अग्नि, वाणी, विद्वान्, राजा, प्रजा, अध्यापक, अध्येता, पृथिवी आदि, मेधावी, बिजुली, सूर्य, मेघ, यज्ञ, होता, यजमान, सेना और सेनापति के गुण कर्मों का वर्णन होने से इस अध्याय के अर्थ की इससे पूर्व अध्याय के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह ऋग्वेद के पञ्चम अष्टक में दूसरा अध्याय और तीसवाँ वर्ग, सातवाँ मण्डल और उन्नीसवाँ सूक्त पूरा हुआ ॥

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र शूर ) ऐश्वर्यवन् ! हे शूरवीर ! तू ( स्तवमानः ) अपने सैन्यों के उत्साह की प्रशंसा करता हुआ (ब्रह्म जूतः ) बड़े धनों और बड़े राष्ट्र से युक्त होकर ( तन्वा ) अपने शरीरवत् प्रिय विस्तृत राष्ट्र से ( वावृधस्व ) बढ़, वृद्धि को प्राप्त हो । ( नः ) हमें ( वाजान् ) बहुत से ऐश्वर्य ( उप मिमीहि ) प्राप्त करा और ( ऊतीन् ) संघ बने शत्रुओं को ( उप मिमीहि ) उखाड़ फेंक । हे वीर पुरुषो ! आप लोग ( नः सदा स्वस्तिभिः सदा पात ) हमारी सदा शुभ, सुखदायक उपायों से रक्षा किया करो । इति त्रिंशो वर्गः ॥ इति द्वितीयोऽध्यायः ॥

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः।। इन्द्रो देवता ॥ छन्दः - १, ५ त्रिष्टुप् । ३, ६ निचृत्त्रिष्टुप् । ७, ९, १० विराट् त्रिष्टुप् । २ निचृत्पंक्ति: । ४ पंक्ति: । ८, ११ भुरिक् पंक्तिः ॥॥ एकादशर्चं सूक्तम् ।।

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    विषय

    वाजान्+स्तीन् [उपमिमीहि ]

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = शत्रुविद्रावक, शूर शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले प्रभो ! (स्तवमानः) = स्तुति किये जाते हुए आप (ऊती) = रक्षा के हेतु से (नु) = अब (वावृधस्व) = हमारा खूब ही वर्धन कीजिये। (ब्रह्मजूतः) - ज्ञान की वाणियों द्वारा हृदयों में प्रेरित हुए हुए आप (तन्वा) = शक्तियों के विस्तार के हेतु से [वावृधस्व०] हमारा खूब वर्धन करिये। [२] (नः) = हमारे लिये (वाजान्) = शक्तियों को (उपमिमीहि) = समीपता से निर्मित कीजिये हमारे समीप होते हुए हमारे लिये शक्तियों का निर्माण करिये तथा (स्तीन्) = ज्ञान की वाणीरूप शब्द समूहों का (उप) [निमीहि] = निर्माण करिये। (यूयम्) = आप (सदा) = सदा (नः) = हमें (स्वस्तिभिः) = कल्याणों के द्वारा (पात) = रक्षित करिये।

    भावार्थ

    भावार्थ-स्तुति किये जाते हुए प्रभु हमारा रक्षण करें, हमारी शक्तियों का विस्तार करें। हमें बलों को व ज्ञानवाणियों को प्राप्त कराएँ। अगले सूक्त के ऋषि देवता भी वसिष्ठ व इन्द्र हैं

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे सेनापती ! तू जसा आपल्या शरीर व बलाला वाढवतोस तसेच संपूर्ण योद्ध्यांच्या शरीर व बलाला वाढव. जसे सेवक तुझे रक्षण करतात तसे तूही त्यांचे निरंतर रक्षण कर. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, wise and brave leader and ruler of the world celebrated in song, exhorting the brave, commanding the defence and protection and the wealth of power, prosperity, food, energy and divine wisdom, grow in body, mind and soul by your body politic, and help us grow as a united commonwealth blest with honour, excellence and prosperity, and let there be no alliances of opposition and enmity against humanity. O lord and leaders of the world, protect and promote us in a state of honourable peace, prosperity and all round well being for all time.

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