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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 50 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 50/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - स्वराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आ मां मि॑त्रावरुणे॒ह र॑क्षतं कुला॒यय॑द्वि॒श्वय॒न्मा न॒ आ ग॑न्। अ॒ज॒का॒वं दु॒र्दृशी॑कं ति॒रो द॑धे॒ मा मां पद्ये॑न॒ रप॑सा विद॒त्त्सरुः॑ ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । माम् । मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒ । इ॒ह । र॒क्ष॒त॒म् । कु॒ला॒यय॑त् । वि॒ऽश्वय॑त् । मा । नः॒ । आ । ग॒न् । अ॒ज॒का॒ऽवम् । दुः॒ऽदृशी॑कम् । ति॒रः । द॒धे॒ । मा । माम् । पद्ये॑न । रप॑सा । वि॒द॒त् । त्सरुः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ मां मित्रावरुणेह रक्षतं कुलाययद्विश्वयन्मा न आ गन्। अजकावं दुर्दृशीकं तिरो दधे मा मां पद्येन रपसा विदत्त्सरुः ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। माम्। मित्रावरुणा। इह। रक्षतम्। कुलाययत्। विऽश्वयत्। मा। नः। आ। गन्। अजकाऽवम्। दुःऽदृशीकम्। तिरः। दधे। मा। माम्। पद्येन। रपसा। विदत्। त्सरुः ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 50; मन्त्र » 1
    अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 17; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    पदार्थ- हे (मित्रावरुणा) = स्नेहवान् और कष्टों के निवारक जनो! (इह) = इस लोक में आप दोनों माता-पिता के समान (माम् रक्षतम्) = मेरी रक्षा करें। (कुलावयत्) = घर या स्थान घेर कर संघ बनाकर रहने वा कुत्सित रूप प्राप्त करानेवाला और (वि-श्वयत्) = विविध रूपों में फैलने और शोथ प्रकट करनेवाला रोग (नः मा आगन्) = हमें प्राप्त न हो। (अजकावं) = 'अजक' अर्थात् भेड़-बकरियों के समान छोटे जन्तुओं को खा जानेवाले, अजगरादिवत् (दुर्दृशीकं) = कठिनता से दीखनेवाले जन्तुओं को मैं (तिरः दधे) = दूर करूँ। (त्सरु:) = कुटिलचारी सर्प आदि (पद्येन रपसा) = पैर से होनेवाले दोष द्वारा (मां मा विदत्) = मुझे प्राप्त न हो।

    भावार्थ - भावार्थ- राजा को योग्य है कि वह अपने राज्य में ऐसे चिकित्सकों की नियुक्ति करें जो मित्रवत् कष्ट निवारण में कुशल हों। वे लोगों को कुत्सित रोगों, छूत के रोगों, शोथ एवं विष आदि से फैलनेवाले रोगों से मुक्त करें। राजा को चाहिए कि वह अजगर, विषैले साँप, बिच्छु आदि से भूमि बनावे। सूक्ष्मदर्शी से दीखनेवाले कृमियों से भी रोग न फैले ऐसी व्यवस्था कर प्रजा को नीरोग बनावे ।

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