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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 53 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 53/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - द्यावापृथिव्यौ छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प्र द्यावा॑ य॒ज्ञैः पृ॑थि॒वी नमो॑भिः स॒बाध॑ ईळे बृह॒ती यज॑त्रे। ते चि॒द्धि पूर्वे॑ क॒वयो॑ गृ॒णन्तः॑ पु॒रो म॒ही द॑धि॒रे दे॒वपु॑त्रे ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । द्यावा॑ । य॒ज्ञैः । पृ॒थि॒वी इति॑ । नमः॑ऽभिः । स॒ऽबाधः॑ । ई॒ळे॒ । बृ॒ह॒ती इति॑ । यज॑त्रे॒ इति॑ । ते इति॑ । चि॒त् । हि । पूर्वे॑ । क॒वयः॑ । गृ॒णन्तः॑ । पु॒रः । म॒ही इति॑ । द॒धि॒रे । दे॒वपु॑त्रे॒ इति॑ दे॒वऽपु॑त्रे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र द्यावा यज्ञैः पृथिवी नमोभिः सबाध ईळे बृहती यजत्रे। ते चिद्धि पूर्वे कवयो गृणन्तः पुरो मही दधिरे देवपुत्रे ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। द्यावा। यज्ञैः। पृथिवी इति। नमःऽभिः। सऽबाधः। ईळे। बृहती इति। यजत्रे इति। ते इति। चित्। हि। पूर्वे। कवयः। गृणन्तः। पुरः। मही इति। दधिरे। देवपुत्रे इति देवऽपुत्रे ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 53; मन्त्र » 1
    अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 20; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    पदार्थ - (द्यावा-पृथिवी) = भूमि और सूर्य के तुल्य (बृहती) = बड़ी, (यजत्रे) = सत्संग योग्य (देव-पुत्रे) = विद्वान् पुत्रों के माता-पिताओं को मैं (यज्ञैः) = दान, मान से (नमोभिः) = नमस्कारों से (सबाध:) = जब-जब पीड़ायुक्त होऊँ (ईडे) = उनकी पूजा करूँ। (त्ये चित् मही) = उन दोनों पूज्यों को (पूर्वे) = पूर्व के (गृणन्तः) = उपदेष्टा (कवयः) = विद्वान् पुरुष (पुरः दधिरे) = सदा अपने सन्मुख, पूज्य पद पर स्थापित करते रहे हैं।

    भावार्थ - भावार्थ- मनुष्य लोग आकाश के समान विशाल हृदयवाले पिता तथा पृथिवी के समान धैर्यशाली माता का सदा सम्मान करें। उनके द्वारा प्रदत्त उत्तम शिक्षाओं को ग्रहण कर दान, मान, सत्कार आदि के द्वारा विद्वानों की भी पूजा करें। माता, पिता व विद्वानों के सत्संग से प्रेरित जन इन सबको पूज्य पद पर स्थापित करते हैं तथा इन्हें कभी भी पीड़ा नहीं पहुँचाते।

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