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ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 52/ मन्त्र 3
तु॒र॒ण्यवोऽङ्गि॑रसो नक्षन्त॒ रत्नं॑ दे॒वस्य॑ सवि॒तुरि॑या॒नाः। पि॒ता च॒ तन्नो॑ म॒हान्यज॑त्रो॒ विश्वे॑ दे॒वाः सम॑नसो जुषन्त ॥३॥
स्वर सहित पद पाठतु॒र॒ण्यवः॑ । अङ्गि॑रसः । न॒क्ष॒न्त॒ । रत्न॑म् । दे॒वस्य॑ । स॒वि॒तुः । इ॒या॒नाः । पि॒ता । च॒ । तत् । नः॒ । म॒हान् । यज॑त्रः । विश्वे॑ । दे॒वाः । सऽम॑नसः । जु॒ष॒न्त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तुरण्यवोऽङ्गिरसो नक्षन्त रत्नं देवस्य सवितुरियानाः। पिता च तन्नो महान्यजत्रो विश्वे देवाः समनसो जुषन्त ॥३॥
स्वर रहित पद पाठतुरण्यवः। अङ्गिरसः। नक्षन्त। रत्नम्। देवस्य। सवितुः। इयानाः। पिता। च। तत्। नः। महान्। यजत्रः। विश्वे। देवाः। सऽमनसः। जुषन्त ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 52; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 19; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 19; मन्त्र » 3
विषय - आलस्य रहित पुरुष
पदार्थ -
पदार्थ - (तुरण्यवः) = शीघ्र कर्म करने में कुशल (अंगिरस:) = देह में (प्राणवत्) = राष्ट्र में तेजस्वी पुरुष (सवितुः देवस्य) = सुखदाता प्रभु को (इयाना:) = याद करते हुए उसके (रत्नं नक्षन्त) = परमैश्वर्यमय राज्यरूप रत्न को प्राप्त करें। (तत्) = वह ही (नः) = हमारा (यजत्रः) = अति पूज्य महान् बड़ा पिता (च) = पालक है। (विश्वे देवाः) = समस्त विद्वान् (समनसः) = समान-चित्त होकर (जुषन्त) = प्रेम-वर्त्ताव करें।
भावार्थ - भावार्थ- मनुष्यों को योग्य है कि वे आलस्य-प्रमाद से रहित होकर कर्म करने में कुशल बनें तथा परमेश्वर के द्वारा प्रदत्त समस्त ऐश्वर्य को राज्य रूप रत्न की प्राप्ति कर तेजस्वी बनें तथा विद्वानों के साथ समान चित्त होकर ईश्वर आराधना करते हुए परस्पर प्रेम पूर्वक व्यवहार करें। अगले सूक्त का ऋषि वसिष्ठ और द्यावापृथिवी देवता हैं।
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