ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 63/ मन्त्र 1
उद्वे॑ति सु॒भगो॑ वि॒श्वच॑क्षा॒: साधा॑रण॒: सूर्यो॒ मानु॑षाणाम् । चक्षु॑र्मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्य दे॒वश्चर्मे॑व॒ यः स॒मवि॑व्य॒क्तमां॑सि ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । ऊँ॒ इति॑ । ए॒ति॒ । सु॒ऽभगः॑ । वि॒श्वऽच॑क्षाः । साधा॑रणः । सूर्यः॑ । मानु॑षाणाम् । चक्षुः॑ । मि॒त्रस्य॑ । वरु॑णस्य । दे॒वः । चर्म॑ऽइव । यः । स॒म्ऽअवि॑व्यक् । तमां॑सि ॥
स्वर रहित मन्त्र
उद्वेति सुभगो विश्वचक्षा: साधारण: सूर्यो मानुषाणाम् । चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्य देवश्चर्मेव यः समविव्यक्तमांसि ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । ऊँ इति । एति । सुऽभगः । विश्वऽचक्षाः । साधारणः । सूर्यः । मानुषाणाम् । चक्षुः । मित्रस्य । वरुणस्य । देवः । चर्मऽइव । यः । सम्ऽअविव्यक् । तमांसि ॥ ७.६३.१
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 63; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
विषय - मार्गदर्शक विद्वान्
पदार्थ -
पदार्थ- जैसे (सूर्यः) = सूर्य (देवः) = प्रकाशयुक्त होकर (तमांसि चर्म इव) = अन्धकारों को चर्म के समान (सम् अविव्यक्) = एक साथ छिन्न-भिन्न करता है और (मानुषाणां साधारणः) = मनुष्यों के प्रति एक समान प्रकाशित होकर (विश्व-चक्षाः उद् एति उ) = सबको दिखाता हुआ उदित होता है और (मित्रस्य वरुणस्य चक्षुः) = मित्र, दिन और वरुण, रात्रि दोनों का प्रकाशक होता है वैसे ही (सु-भगः) = उत्तम ऐश्वर्यवान् (सूर्यः) = सूर्य-समान तेजस्वी, (मानुषाणां साधारणः) = मनुष्यों के प्रति एक समान और (विश्व-चक्षाः) = सबका मार्गदर्शी विद्वान् वा राजा भी (मित्रस्य) = अपने स्नेही और (वरुणस्य) = श्रेष्ठ पुरुष का भी (चक्षुः) = नेत्र के समान मार्गदर्शक हो। वह (देवः) = विद्वान् (तमांसि) = अज्ञान अन्धकारों को (चर्म इव सम् अविव्यक्) = चर्म के समान एक साथ छिन्न-भिन्न करे।
भावार्थ - भावार्थ- उत्तम विद्वान् जन राष्ट्र में लोगों के अज्ञान को अपने वेद ज्ञान के प्रकाश से नष्ट करके उनका मार्गदर्शन करें। वे समानता, बन्धुत्व तथा मधुर व्यवहार सिखाकर राष्ट्र को उन्नत करने में सहायक होवें।
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