ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 81/ मन्त्र 2
उदु॒स्रिया॑: सृजते॒ सूर्य॒: सचाँ॑ उ॒द्यन्नक्ष॑त्रमर्चि॒वत् । तवेदु॑षो॒ व्युषि॒ सूर्य॑स्य च॒ सं भ॒क्तेन॑ गमेमहि ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । उ॒स्रियाः॑ । सृ॒ज॒ते॒ । सूर्यः॑ । सचा॑ । उ॒त्ऽयत् । नक्ष॑त्रम् । अ॒र्चि॒ऽवत् । तव॑ । इत् । उ॒षः॒ । वि॒ऽउषि॑ । सूर्य॑स्य । च॒ । सम् । भ॒क्तेन॑ । ग॒मे॒म॒हि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उदुस्रिया: सृजते सूर्य: सचाँ उद्यन्नक्षत्रमर्चिवत् । तवेदुषो व्युषि सूर्यस्य च सं भक्तेन गमेमहि ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । उस्रियाः । सृजते । सूर्यः । सचा । उत्ऽयत् । नक्षत्रम् । अर्चिऽवत् । तव । इत् । उषः । विऽउषि । सूर्यस्य । च । सम् । भक्तेन । गमेमहि ॥ ७.८१.२
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 81; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
विषय - स्त्री का राज्यपालन में सहयोग
पदार्थ -
पदार्थ- जैसे (अर्चिवत्) = तेजो युक्त (नक्षत्रम्) = नक्षत्र रूप (सूर्य:) = सूर्य (उस्त्रियाः सचा उत्सृजते) = किरणों को एक साथ ऊपर फेंकता है, हे (उषः) = उषः ! (तव इत् सूर्यस्य उषि) = तेरे और सूर्य के उषा काल में जैसे (भक्तेन सं गमेमहि) = हम भजन - योग्य प्रभु से संगति लाभ करें, वैसे ही हे (उषः) = कान्तिमति, उत्तम विदुषि नववधु ! जब (उद्-यत्) = उगता हुआ (अर्चिवत्) = अन्यों के सत्कार योग्य (नक्षत्रम्) = नक्षत्र के समान व्यापक राज्य पालन-सामर्थ्य हो और (सचा) = साथ ही (सूर्यः) = सूर्यतुल्य तेजस्वी पुरुष (उस्त्रियाः) = उन्नतिशील प्रजाओं को किरणों के समान (उत्सृजते) = उन्नति की ओर ले जाता है, तब (तव इत् विउषि, सूर्यस्य च वि-उषि) = तेरी और तेरे पति तेजस्वी पुरुष की विशेष इच्छा और प्रताप होने पर (भक्तेन सं गमेमहि) = हम ऐश्वर्यादि लाभ करें।
भावार्थ - भावार्थ-विदुषी नव वधू अपने तेजस्वी पति के साथ मिलकर राज्यपालन व प्रजाओं को उन्नतिशील बनाने में सहयोग करे। राज्य को ऐश्वर्य सम्पन्न बनाने में सम्मति देकर पति की इच्छा को पूर्ण करे।
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