ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 89/ मन्त्र 5
यत्किं चे॒दं व॑रुण॒ दैव्ये॒ जने॑ऽभिद्रो॒हं म॑नु॒ष्या॒३॒॑श्चरा॑मसि । अचि॑त्ती॒ यत्तव॒ धर्मा॑ युयोपि॒म मा न॒स्तस्मा॒देन॑सो देव रीरिषः ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । किम् । च॒ । इ॒दम् । व॒रु॒ण॒ । दैव्ये॑ । जने॑ । अ॒भि॒ऽद्रो॒हम् । म॒नु॒ष्याः॑ । चरा॑मसि । अचि॑त्ती । यत् । तव॑ । धर्म॑ । यु॒यो॒पि॒म । मा । नः॒ । तस्मा॑त् । एन॑सः । दे॒व॒ । रि॒रि॒षः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्किं चेदं वरुण दैव्ये जनेऽभिद्रोहं मनुष्या३श्चरामसि । अचित्ती यत्तव धर्मा युयोपिम मा नस्तस्मादेनसो देव रीरिषः ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । किम् । च । इदम् । वरुण । दैव्ये । जने । अभिऽद्रोहम् । मनुष्याः । चरामसि । अचित्ती । यत् । तव । धर्म । युयोपिम । मा । नः । तस्मात् । एनसः । देव । रिरिषः ॥ ७.८९.५
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 89; मन्त्र » 5
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
विषय - सत्पुरुषों से द्रोह न कर
पदार्थ -
पदार्थ- हे (वरुण) = प्रभो ! (दैव्ये जने) = विद्वान् सत्पुरुष के हितकारी जन के ऊपर रहकर हम (मनुष्या:) = मनुष्य (यत् किं च) = जो कुछ भी (इदं अभिद्रोहं) = इस प्रकार का द्रोह आदि (चरामसि) = करते हैं और (अचित्ती) = बिना ज्ञान के (यत् तव धर्मा युयोपिम) = जो तेरे बनाये नियमों को उल्लंघन करते हैं, हे देव प्रभो! राजन् ! (तस्माद् एनस:) = उस अपराध या पाप से (नः मा रीरिष:) = हमें दुःखित मत कर।
भावार्थ - भावार्थ- जो मनुष्य विद्वान् सत्पुरुषों से द्रोह करता है तथा ईश्वर के बनाए सृष्टि-नियम का उल्लंघन करता है वह अज्ञानी सदैव दुःखी एवं अशान्त रहता है। अतः मनुष्य ईश्वर की शरण में जाकर उसके नियमों का पालन व विद्वानों का सत्कार करते हुए दुःखों से दूर रहे। अग्रिम सूक्त का ऋषि वसिष्ठ व देवता वायु, इन्द्रवायू हैं।
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