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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 9 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 9/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अबो॑धि जा॒र उ॒षसा॑मु॒पस्था॒द्धोता॑ म॒न्द्रः क॒वित॑मः पाव॒कः। दधा॑ति के॒तुमु॒भय॑स्य ज॒न्तोर्ह॒व्या दे॒वेषु॒ द्रवि॑णं सु॒कृत्सु॑ ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अबो॑धि । जा॒रः । उ॒षसा॑म् । उ॒पऽस्था॑त् । होता॑ । म॒न्द्रः । क॒विऽत॑मः । पा॒व॒कः । दधा॑ति । के॒तुम् । उ॒भय॑स्य । ज॒न्तोः । ह॒व्या । दे॒वेषु॑ । द्रवि॑णम् सु॒कृत्ऽसु॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अबोधि जार उषसामुपस्थाद्धोता मन्द्रः कवितमः पावकः। दधाति केतुमुभयस्य जन्तोर्हव्या देवेषु द्रविणं सुकृत्सु ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अबोधि। जारः। उषसाम्। उपऽस्थात्। होता। मन्द्रः। कविऽतमः। पावकः। दधाति। केतुम्। उभयस्य। जन्तोः। हव्या। देवेषु। द्रविणम् सुकृत्ऽसु ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 9; मन्त्र » 1
    अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 12; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [१] वह (जारः) = वासनाओं को जीर्ण करनेवाला प्रभु (उषसाम्) = [उष दाहे] वासनाओं को भस्म करनेवाले पुरुषों की (उपस्थात्) = उपासना से अबोधि जाना जाता है। प्रभु दर्शन उन्हीं को होता है जो अपनी वासनाओं को जीर्ण करने के लिये यत्नशील होते हैं। इनके समीप उठने-बैठने से सामान्य मनुष्य भी परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त करता है। वे प्रभु (होता) = सब कुछ देनेवाले हैं, (मन्द्रः) = आनन्दमय हैं, (कवितयः) = अत्यन्त क्रान्तप्रज्ञ हैं (पावकः) = पवित्र करनेवाले हैं। [२] ये प्रभु (उभयस्य जन्तोः) = दोनों प्रकार के प्राणियों, पशु-पक्षियों व मनुष्यों के (केतुम्) = ज्ञान को (दधाति) = स्थापित करते हैं। पशुओं में भी कुछ वासना के रूप में ज्ञान की स्थापना होती है। मनुष्यों को प्रभु बुद्धि [Intelligence] देते हैं। ये प्रभु ही (देवेषु) = देववृत्ति के व्यक्तियों में (हव्या) = हव्य पदार्थों को तथा (सुकृत्सु) = पुण्यशालियों में (द्रविणम्) = धन को धारण करते हैं। देववृत्ति के व्यक्ति सदा हव्य पदार्थों को ही ग्रहण करते हैं।

    भावार्थ - भावार्थ- प्रभु वासनाशून्य हृदयों में प्रकाशित होते हैं। ये प्राज्ञ प्रभु ही हमें पवित्र बनाते सभी को ये ही ज्ञान देते हैं। हव्यों व द्रविणों को प्राप्त कराते हैं।

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