ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 9/ मन्त्र 2
स सु॒क्रतु॒र्यो वि दुरः॑ पणी॒नां पु॑ना॒नो अ॒र्कं पु॑रु॒भोज॑सं नः। होता॑ म॒न्द्रो वि॒शां दमू॑नास्ति॒रस्तमो॑ ददृशे रा॒म्याणा॑म् ॥२॥
स्वर सहित पद पाठसः । सु॒ऽक्रतुः॑ । यः । वि । दुरः॑ । प॒णी॒नाम् । पु॒ना॒नः । अ॒र्कम् । पु॒रु॒ऽभोज॑सम् । नः॒ । होता॑ । म॒न्द्रः । वि॒शाम् । दमू॑नाः । ति॒रः । तमः॑ । द॒दृ॒शे॒ । रा॒म्याणा॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
स सुक्रतुर्यो वि दुरः पणीनां पुनानो अर्कं पुरुभोजसं नः। होता मन्द्रो विशां दमूनास्तिरस्तमो ददृशे राम्याणाम् ॥२॥
स्वर रहित पद पाठसः। सुऽक्रतुः। यः। वि। दुरः। पणीनाम्। पुनानः। अर्कम्। पुरुऽभोजसम्। नः। होता। मन्द्रः। विशाम्। दमूनाः। तिरः। तमः। ददृशे। राम्याणाम् ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 9; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
विषय - ज्ञान का प्रकाश
पदार्थ -
[१] (सः) = वे प्रभु (सुक्रतुः) = शोभनकर्मा व शोभनप्रज्ञ हैं, (यः) = जो (पणीनाम्) = [पण व्यवहारे स्तुतौ च] प्रभु-स्मरणपूर्वक व्यवहार करनेवालों के (दूरः) = इन्द्रिय द्वारों को (वि) = खोल देते हैं, विषयवासनाओं से मुक्त करके इन्हें स्वकर्तव्य में प्रेरित करते हैं। ये प्रभु (नः) = हमारे (पुरुभोजसम्) = खूब ही पालन करनेवाले (अर्कम्) = ज्ञानसूर्य को (पुनान:) = पवित्र करते हैं, वासनारूप बादलों के आवरण से इसे रहित करते हैं। वासनामेघ के विलीन होने से ज्ञानसूर्य दीप्त हो उठता है। [२] (होता) = वे प्रभु सब कुछ देनेवाले हैं। (मन्द्रः) = आनन्दमय हैं। (दमूना:) = दान के मनवाले हैं। (राम्याणां विशाम्) = रात्रि के अन्धकार में फँसी अथवा रमण प्रवृत प्रजाओं के (तमः) = अन्धकार को (तिरः ददृशे) = तिरोहित कर देते हैं, नष्ट कर देते हैं। प्रभु की उपासना के होने स अज्ञानान्धकार नष्ट हो हैं।
भावार्थ - भावार्थ-प्रभु उपासकों के इन्द्रिय द्वारों को विजयवज्र से मुक्त कर देते हैं और इनके ज्ञान को वे दीप्त करते हैं। उपासना से विषयों में रमण करनेवाली प्रजाओं का भी अज्ञानान्धकार नष्ट हो जाता है।
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