ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 9/ मन्त्र 3
अमू॑रः क॒विरदि॑तिर्वि॒वस्वा॑न्त्सुसं॒सन्मि॒त्रो अति॑थिः शि॒वो नः॑। चि॒त्रभा॑नुरु॒षसां॑ भा॒त्यग्रे॒ऽपां गर्भः॑ प्र॒स्व१॒॑ आ वि॑वेश ॥३॥
स्वर सहित पद पाठअमू॑रः । क॒विः । अदि॑तिः । वि॒वस्वा॑न् । सु॒ऽसं॒सत् । मि॒त्रः । अति॑थिः । शि॒वः । नः॒ । चि॒त्रऽभा॑नुः । उ॒षसा॑म् । भा॒ति॒ । अग्रे॑ । अ॒पाम् । गर्भः॑ । प्र॒ऽस्वः॑ । आ । वि॒वे॒श॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अमूरः कविरदितिर्विवस्वान्त्सुसंसन्मित्रो अतिथिः शिवो नः। चित्रभानुरुषसां भात्यग्रेऽपां गर्भः प्रस्व१ आ विवेश ॥३॥
स्वर रहित पद पाठअमूरः। कविः। अदितिः। विवस्वान्। सुऽसंसत्। मित्रः। अतिथिः। शिवः। नः। चित्रऽभानुः। उषसाम्। भाति। अग्रे। अपाम्। गर्भः। प्रऽस्वः। आ। विवेश ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 9; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
विषय - प्रस्व: आविवेश
पदार्थ -
[१] वे प्रभु (अमूरः) = सब प्रकार की मूढ़ताओं से दूर, (कवि:) = क्रान्तप्रज्ञ, (अदितिः) = खण्डनरहित, (विवस्वान्) = ज्ञान की किरणोंवाले हैं। (सुसंसत्) = पवित्र हृदय में आसीन होनेवाले, (मित्रः) = मृत्यु से बचानेवाले, (अतिथि:) = निरन्तर गतिशील, (नः शिवः) = हमारे लिये कल्याण को करनेवाले हैं। [२] (चित्रभानुः) = अद्भुत दीप्तिवाले वे प्रभु (उषसां अग्रे) = उषाकालों के अग्रभाग में (भाति) = हमारे हृदयों में दीप्त होते हैं। (अपां गर्भः) = जलों के मध्य में होते हुए ये (प्रस्वः) = आविवेश सब ओषधियों में प्रवेश करते हैं। ओषधियों के अन्दर उस उस प्राणशक्ति को प्रभु ही तो स्थापित करते हैं। जलों में ये प्रभु ही रस के रूप में होते हैं। हम प्रातः प्रभु स्मरण करते हुए हृदयदेश में प्रभु को देखने का प्रयत्न करें।
भावार्थ - भावार्थ- प्रभु ज्ञान की किरणोंवाले हैं, पवित्र हृदय में प्रकाशित होते हैं। ये प्रभु जलों के गर्भ में रहते हुए सभी ओषधियों में प्रवेश कर रहे हैं।
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