ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 99/ मन्त्र 2
न ते॑ विष्णो॒ जाय॑मानो॒ न जा॒तो देव॑ महि॒म्नः पर॒मन्त॑माप । उद॑स्तभ्ना॒ नाक॑मृ॒ष्वं बृ॒हन्तं॑ दा॒धर्थ॒ प्राचीं॑ क॒कुभं॑ पृथि॒व्याः ॥
स्वर सहित पद पाठन । ते॒ । वि॒ष्णो॒ इति॑ । जाय॑मानः । न । जा॒तः । देव॑ । महि॒म्नः । पर॑म् । अन्त॑म् । आ॒प॒ । उत् । अ॒स्त॒भ्नाः॒ । नाक॑म् । ऋ॒ष्वम् । बृ॒हन्त॑म् । दा॒धर्थ॑ । प्राची॑म् । क॒कुभ॑म् । पृ॒थि॒व्याः ॥
स्वर रहित मन्त्र
न ते विष्णो जायमानो न जातो देव महिम्नः परमन्तमाप । उदस्तभ्ना नाकमृष्वं बृहन्तं दाधर्थ प्राचीं ककुभं पृथिव्याः ॥
स्वर रहित पद पाठन । ते । विष्णो इति । जायमानः । न । जातः । देव । महिम्नः । परम् । अन्तम् । आप । उत् । अस्तभ्नाः । नाकम् । ऋष्वम् । बृहन्तम् । दाधर्थ । प्राचीम् । ककुभम् । पृथिव्याः ॥ ७.९९.२
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 99; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
विषय - ईश्वर का अनन्त सामर्थ्य
पदार्थ -
पदार्थ- हे (विष्णो) = जगदीश्वर (न जायमानः) = न उत्पन्न होता हुआ और (जातः) = उत्पन्न हुआ कोई (ते महिम्न:) = तेरे महान् सामर्थ्य की (परम् अन्तम्) = परली सीमा को (न आप) = प्राप्त नहीं कर सका है। हे (देव) = सर्वप्रकाशक! तू (बृहन्तं) = बड़े भारी, (ऋष्वं) = महान् (नाकम्) = दुःख-रहित, मोक्ष धाम और आकाश को (उत् अस्तभ्नाः) = उठा रहा है और (पृथिव्याः) = पृथिवी की (प्राचीं ककुभं) = प्राची दिशा को जैसे सूर्य प्रकाशित करता है वैसे ही तू (पृथिव्याः) = जगत् को फैलानेवाली प्रकृति को (प्राचीं ककुभम्) = जगत् के उत्पन्न होने के पूर्व से उत्तम रूप से प्रकट होनेवाले आर्जवी भाव अर्थात् विकृति भाव को दाधर्थ धारण कराता है।
भावार्थ - भावार्थ - वह जगदीश्वर अजन्मा है। उसका सामर्थ्य अनन्त है। वह मोक्ष का अधिपति है तथा आकाश, भूमि व समस्त दिशाओं को प्रकाशित करता है। मूल प्रकृति में प्रेरणा करके विकृति उत्पन्न करता है, अर्थात् इस महान् सृष्टि को रचता है।
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