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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 10 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 10/ मन्त्र 1
    ऋषिः - प्रगाथः काण्वः देवता - अश्विनौ छन्दः - विराड्बृहती स्वरः - मध्यमः

    यत्स्थो दी॒र्घप्र॑सद्मनि॒ यद्वा॒दो रो॑च॒ने दि॒वः । यद्वा॑ समु॒द्रे अध्याकृ॑ते गृ॒हेऽत॒ आ या॑तमश्विना ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । स्थः । दी॒र्घऽप्र॑सद्मनि । यत् । वा॒ । अ॒दः । रो॒च॒ने । दि॒वः । यत् । वा॒ । स॒मु॒द्रे । अधि॑ । आऽकृ॑ते । गृ॒हे । अतः॑ । आ । या॒त॒म् । अ॒श्वि॒ना॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्स्थो दीर्घप्रसद्मनि यद्वादो रोचने दिवः । यद्वा समुद्रे अध्याकृते गृहेऽत आ यातमश्विना ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । स्थः । दीर्घऽप्रसद्मनि । यत् । वा । अदः । रोचने । दिवः । यत् । वा । समुद्रे । अधि । आऽकृते । गृहे । अतः । आ । यातम् । अश्विना ॥ ८.१०.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 10; मन्त्र » 1
    अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 34; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [१] वैदिक संस्कृति में यह पृथिवी 'देव-यजनी' कही गयी है, यह देवों के यज्ञ करने का स्थान है। ‘दीर्घ अस्थताः प्रसन्नानः यज्ञगृहाः यस्मिन् '। हे (अश्विना) = प्राणापानो ! (यत्) = यदि आप (दीर्घप्रसद्मनि) = इस विस्तृत यज्ञ गृहोंवाले पृथिवीलोक में (स्थः) = हो । (यद् वा) = अथवा यदि (अदः) = उस (दिवः) = द्युलोक के (रोचने) = दीप्त स्थान में आप हो। (यद् वा) = अथवा यदि (समुद्रे अधि) = [स मुद्] आनन्द से युक्त हृदयान्तरिक्ष में आकृते बनाये हुए (गृहे) = घर में हो अतः इस दृष्टिकोण से हे प्राणापानो! आप हमें (आयातम्) = प्राप्त होवो। [२] प्राणसाधना करनेवाला पुरुष अपने गृह को यज्ञगृह बनाने का प्रयत्न करता है। उसे यह स्मरण रहता है कि 'हविर्धानम्' अग्निहोत्र का कमरा उसके घर का प्रमुख कमरा होता है। यह प्राणसाधक ज्ञान दीप्त मस्तिष्करूप द्युलोक में निवास करता है। तथा यह साधक अपने हृदय को प्रभु का गृह [मन्दिर] बनाने का प्रयत्न करता है।

    भावार्थ - भावार्थ-प्राणसाधक का घर 'यज्ञ-घर' बनता है, इसका मस्तिष्क दीप्त होता है, और इसका हृदय प्रभु का निवास स्थान बनता है ।

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