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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 9 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 9/ मन्त्र 21
    ऋषिः - शशकर्णः काण्वः देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    यन्नू॒नं धी॒भिर॑श्विना पि॒तुर्योना॑ नि॒षीद॑थः । यद्वा॑ सु॒म्नेभि॑रुक्थ्या ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । नू॒नम् । धी॒भिः । अ॒श्वि॒ना॒ । पि॒तुः । योना॑ । नि॒ऽसीद॑थः । यत् । वा॒ । सु॒म्नेभिः॑ । उ॒क्थ्या॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यन्नूनं धीभिरश्विना पितुर्योना निषीदथः । यद्वा सुम्नेभिरुक्थ्या ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । नूनम् । धीभिः । अश्विना । पितुः । योना । निऽसीदथः । यत् । वा । सुम्नेभिः । उक्थ्या ॥ ८.९.२१

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 9; मन्त्र » 21
    अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 33; मन्त्र » 6

    पदार्थ -
    [१] हे (अश्विना) = प्राणापानो! आप (यत्) = क्योंकि (धीभिः) = बुद्धिपूर्वक किये जानेवाले कर्मों के द्वारा (पितुः योनाः) = उस परमपिता प्रभु के गृह में (निषीदथः) = आसीन होते हो, अर्थात् आपकी साधना के द्वारा मल-क्षय व ज्ञानदीप्ति होकर प्रभु का दर्शन होता है । (यद् वा) = अथवा (सुम्नेभिः) = स्तोत्रों के द्वारा आप ब्रह्मलोक में निवास कराते हो, सो (उक्थ्या) = आप स्तुत्य होते हो।

    भावार्थ - भावार्थ- प्राणसाधना से बुद्धि का विकास होता है, स्तुति की प्रवृत्ति जागरित होती है। ये बुद्धि व स्तुति हमें प्रभु को प्राप्त करानेवाली होती हैं। यह प्रभु का स्तवन करनेवाला 'प्रगाथ' कहलाता है। यह 'काण्व' = अत्यन्त मेधावी तो है ही । यह अगले सूक्त का ऋषि है। यह 'अश्विनौ' का आराधन करता हुआ कहता है कि-

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