ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 18/ मन्त्र 1
ऋषिः - इरिम्बिठिः काण्वः
देवता - आदित्याः
छन्दः - पादनिचृदुष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
इ॒दं ह॑ नू॒नमे॑षां सु॒म्नं भि॑क्षेत॒ मर्त्य॑: । आ॒दि॒त्याना॒मपू॑र्व्यं॒ सवी॑मनि ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒दम् । ह॒ । नू॒नम् । ए॒षा॒म् । सु॒म्नम् । भि॒क्षे॒त॒ । मर्त्यः॑ । आ॒दि॒त्याना॑म् । अपू॑र्व्यम् । सवी॑मनि ॥
स्वर रहित मन्त्र
इदं ह नूनमेषां सुम्नं भिक्षेत मर्त्य: । आदित्यानामपूर्व्यं सवीमनि ॥
स्वर रहित पद पाठइदम् । ह । नूनम् । एषाम् । सुम्नम् । भिक्षेत । मर्त्यः । आदित्यानाम् । अपूर्व्यम् । सवीमनि ॥ ८.१८.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 18; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 25; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 25; मन्त्र » 1
विषय - आदित्यों की प्रेरणाएँ
पदार्थ -
[१] प्रकृति का ज्ञान प्राप्त करनेवाले विद्वान् 'वसु' हैं। 'प्रकृति-जीव' का ज्ञान प्राप्त करनेवाले 'रुद्र' कहलाते हैं और 'प्रकृति - जीव- परमात्मा' का ज्ञान प्राप्त करनेवाले ये विद्वान् 'आदित्य' हैं। (मर्त्यः) = मनुष्य (एषां आदित्यानाम्) = इन आदित्यों के (इदम्) = इस (हनूनम्) = निश्चय से (अपूर्व्यम्) = अद्भुत (सुम्नम्) = अनुग्रह व रक्षण को भिक्षेत माँगे । [२] (सवीमनि) = सदा इन आदित्यों की प्रेरणा में चलने का प्रयत्न करे। इस प्रेरणा में चलने से ही हम भी आदित्य बन पायेंगे। विद्वानों की प्रेरणा में चलते हुए उनके अनुग्रह को प्राप्त कर सकें।
भावार्थ - भावार्थ- हम आदित्य यही मार्ग है।
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