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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 23/ मन्त्र 1
    ऋषिः - विश्वमना वैयश्वः देवता - अग्निः छन्दः - निचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    ईळि॑ष्वा॒ हि प्र॑ती॒व्यं१॒॑ यज॑स्व जा॒तवे॑दसम् । च॒रि॒ष्णुधू॑म॒मगृ॑भीतशोचिषम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ईळि॑ष्व॑ । हि । प्र॒ती॒व्य॑म् । यज॑स्व । जा॒तऽवे॑दसम् । च॒रि॒ष्णुऽधू॑मम् । अगृ॑भीतऽशोचिषम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ईळिष्वा हि प्रतीव्यं१ यजस्व जातवेदसम् । चरिष्णुधूममगृभीतशोचिषम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ईळिष्व । हि । प्रतीव्यम् । यजस्व । जातऽवेदसम् । चरिष्णुऽधूमम् । अगृभीतऽशोचिषम् ॥ ८.२३.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 23; मन्त्र » 1
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 9; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [१] उस प्रभु का तू (ईडिष्व) = स्तवन कर, जो (हि) = निश्चय से (प्रतीव्यम्) = [प्रति+वी] काम-क्रोध आदि शत्रुओं के प्रति जानेवाले हैं, उन पर आक्रमण करनेवाले हैं। 'काम' स्मर है, या सदा सांसारिक विषयों के प्रति हमें उत्कण्ठित करता है। पर प्रभु 'स्मर-हर' हैं। इस काम-वासना का विनाश करनेवाले हैं। इन (जातवेदसम्) = सर्वज्ञ प्रभु का (यजस्व) = तू पूजन कर, इन प्रभु के प्रति अपना अर्पण करनेवाला बन । प्रभु के ज्ञान से ज्ञान सम्पन्न बनकर तू ज्ञानाग्नि में वासनाओं का विध्वंस कर पायेगा। [२] वे प्रभु (चरिष्णुधूमम्) = गति के स्वभाववाले व सब दुर्भावों को कम्पित करके दूर करनेवाले हैं। गतिमयता ही वस्तुतः वासनाओं के आक्रमण से बचने का मार्ग है। इस 'चरिष्णु धूम' का यजन करता हुआ उपासक भी सदा क्रियाशील होता है, अतएव वासनाओं के आक्रमण से बचा रहता है। (अगृभीत शोचिषम्) = इस प्रभु की ज्ञानदीप्ति कभी भी किसी आवरण से गृभीत नहीं होती, अनावृत्त ज्योतिवाले वे प्रभु सदा ही दीप्त हैं। इनका उपासक भी अपनी ज्ञान - ज्योति को 'काम-वासना' रूप वृत्त से आवृत नहीं होने देता।

    भावार्थ - भावार्थ- हम प्रभु का उपासन इस रूप में करें कि वे प्रतीव्य हैं, हमारी वासनाओं पर आक्रमण करके उन्हें नष्ट करनेवाले हैं। (जातवेदसम्) = सर्वज्ञ हैं। चरिष्णुधूम हैं, स्वाभाविक क्रियावाले व वासनाओं को कम्पित करके दूर करनेवाले हैं। (आगृभीत शोचिम्) = अनावृत ज्ञान ज्योतिवाले हैं।

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