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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 23/ मन्त्र 2
    ऋषिः - विश्वमना वैयश्वः देवता - अग्निः छन्दः - विराडुष्निक् स्वरः - ऋषभः

    दा॒मानं॑ विश्वचर्षणे॒ऽग्निं वि॑श्वमनो गि॒रा । उ॒त स्तु॑षे॒ विष्प॑र्धसो॒ रथा॑नाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दा॒मान॑म् । वि॒श्व॒ऽच॒र्ष॒णे॒ । अ॒ग्निम् । वि॒श्व॒ऽम॒नः॒ । गि॒रा । उ॒त । स्तु॒षे॒ । विऽस्प॑र्धसः । रथा॑नाम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दामानं विश्वचर्षणेऽग्निं विश्वमनो गिरा । उत स्तुषे विष्पर्धसो रथानाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दामानम् । विश्वऽचर्षणे । अग्निम् । विश्वऽमनः । गिरा । उत । स्तुषे । विऽस्पर्धसः । रथानाम् ॥ ८.२३.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 23; मन्त्र » 2
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 9; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    [१] हे (विश्व) = चर्षणे सर्वत्र प्रविष्ट, सर्वव्यापक प्रभु का दर्शन करनेवाले, (विश्वमनः) = व्यापक प्रभु में ही मन को लगानेवाले उपासक ! उस (अग्निम्) = अग्रेणी प्रभु को (गिरा) = इन ज्ञान की वाणियों से (स्तुषे) = स्तुत कर । प्रभु का स्तवन ही तेरी उन्नति का कारण बनेगा। [२] (उत) = और उस प्रभु का तू स्तवन कर जो (वि-स्पर्धसः) = विगत मात्सर्यवाले 'विश्वमना' पुरुषों के लिये (रथानाम्) = उत्तम शरीररूप रथों के (दामानम्) = देनेवाले हैं। इन उत्तम शरीर रथों द्वारा वे प्रभु ही हमें जीवन यात्रा की पूर्ति के लिये सक्षम बनाते हैं।

    भावार्थ - भावार्थ-उस प्रभु को देखनेवाले व तद्गत मनवाले बनकर हम प्रभु का स्तवन करें। हमारे लिये प्रभु उन उत्तम शरीररथों को प्राप्त कराते हैं, जिनके द्वारा हम जीवनयात्रा को अत्यन्त सुन्दरता से पूर्ण करनेवाले होते हैं।

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