ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 28/ मन्त्र 1
ये त्रिं॒शति॒ त्रय॑स्प॒रो दे॒वासो॑ ब॒र्हिरास॑दन् । वि॒दन्नह॑ द्वि॒तास॑नन् ॥
स्वर सहित पद पाठये । त्रिं॒शति॑ । त्रयः॑ । प॒रः । दे॒वासः॑ । ब॒र्हिः । आ । अस॑दन् । वि॒दन् । अह॑ । द्वि॒ता । अ॒स॒न॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
ये त्रिंशति त्रयस्परो देवासो बर्हिरासदन् । विदन्नह द्वितासनन् ॥
स्वर रहित पद पाठये । त्रिंशति । त्रयः । परः । देवासः । बर्हिः । आ । असदन् । विदन् । अह । द्विता । असनम् ॥ ८.२८.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 28; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 35; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 35; मन्त्र » 1
विषय - तेंतीस देवों से ज्ञान व शक्ति का लाभ
पदार्थ -
[१] ११ देव पृथिवीस्थ हैं, ११ अन्तरिक्षस्थ देव हैं और ११ द्युलोकस्थ देव हैं। इस प्रकार (ये) = तेंतीस देव हैं। (ये) = जो (त्रयस् परः) = तीन अधिक (त्रिंशति) = ३०, अर्थात् तेंतीस (देवासः) = देव हैं। ये सब देव इन देवों से सूचित दिव्यभाव (बर्हिः असदन्) = हमारे हृदयान्तरिक्ष में (आसदन्) = आसीन हों। [२] ये सब देव (अह) = निश्चय से हमें (विदन्) = जानें, प्राप्त हों। [द्वौ तनोति - इति द्विता] ज्ञान व शक्ति दोनों के विस्तार के हेतु से ये सब देव हमें (असनन्) = सब ऐश्वर्यों के देनेवाले हों।
भावार्थ - भावार्थ- सब दिव्य गुणों का हम धारण करें। ये देव हमारे में 'ज्ञान व शक्ति' का विस्तार करें।
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