ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 46/ मन्त्र 2
त्वां हि स॒त्यम॑द्रिवो वि॒द्म दा॒तार॑मि॒षाम् । वि॒द्म दा॒तारं॑ रयी॒णाम् ॥
स्वर सहित पद पाठत्वाम् । हि । स॒त्यम् । अ॒द्रि॒ऽवः॒ । वि॒द्म । दा॒तार॑म् । इ॒षाम् । वि॒द्म । दा॒तार॑म् । र॒यी॒णाम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वां हि सत्यमद्रिवो विद्म दातारमिषाम् । विद्म दातारं रयीणाम् ॥
स्वर रहित पद पाठत्वाम् । हि । सत्यम् । अद्रिऽवः । विद्म । दातारम् । इषाम् । विद्म । दातारम् । रयीणाम् ॥ ८.४६.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 46; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
विषय - 'इषां रयीणाम्' दातारम्
पदार्थ -
[१] हे (अद्रिवः) = [अत्ति शत्रुम्] शत्रुओं का विध्वंस करनेवाले प्रभो ! (त्वां) = आपको (हि) = ही (सत्यं) = सचमुच (इषां) = उत्तम प्रेरणाओं का (दातारम्) = देनेवाला (विद्म) = जानें। [२] हम आपको ही (रयीणाम्) = सब धनों का (दातारं) = दाता (विद्म) = जानें।
भावार्थ - भावार्थ- प्रभु ही सब धनों को देनेवाले हैं। वे ही इन धनों के सदुपयोग के लिए प्रेरणाओं को प्राप्त कराते हैं।
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