ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 46/ मन्त्र 2
त्वां हि स॒त्यम॑द्रिवो वि॒द्म दा॒तार॑मि॒षाम् । वि॒द्म दा॒तारं॑ रयी॒णाम् ॥
स्वर सहित पद पाठत्वाम् । हि । स॒त्यम् । अ॒द्रि॒ऽवः॒ । वि॒द्म । दा॒तार॑म् । इ॒षाम् । वि॒द्म । दा॒तार॑म् । र॒यी॒णाम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वां हि सत्यमद्रिवो विद्म दातारमिषाम् । विद्म दातारं रयीणाम् ॥
स्वर रहित पद पाठत्वाम् । हि । सत्यम् । अद्रिऽवः । विद्म । दातारम् । इषाम् । विद्म । दातारम् । रयीणाम् ॥ ८.४६.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 46; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
Acknowledgment
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
Acknowledgment
भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Lord of the thunderbolt, we know you are eternal and constant, ever true, giver of all foods and energies, and we know you are the giver of all kinds and forms of wealth, honour and excellence.
मराठी (1)
भावार्थ
अन्न व धनाचा अधिपती व दाता ईश्वराला मानून त्याचीच उपासना करा. ॥२॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे अद्रिवः=दण्डधारिन् ईश ! त्वां हि । सत्यं=निश्चयम् इषामन्नानां दातारं विद्म । तथा रयीणां धनानां दातारम् । विद्म=जानीमः ॥२ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(अद्रिवः) हे महादण्डधारिन् ईश ! (सत्यम्) इसमें सन्देह नहीं कि (त्वाम्+हि) तुझको (इषाम्+दातारम्) अन्नों का दाता (विद्म) हम जानते हैं और (रयीणाम्+दातारम्) सम्पत्तियों का दाता तुझको (विद्म) जानते हैं ॥२ ॥
भावार्थ
अन्नों और धनों का अधिपति और दाता ईश्वर को मान उसी की उपासना करो ॥२ ॥
विषय
प्रभु का वर्णन।
भावार्थ
हे (अद्रिवः ) शक्तिशालिन् ! मेघवत् उदार पुरुषों के स्वामिन् ! हम (त्वां हि) तुझ को ही ( सत्यम् ) सञ्चा ( इषां दातारम् ) अन्नों और सकल इच्छाओं, कामनाओं का देने वाला, ( विद्म ) जानें और (त्वां रयीणां दातारं विद्म) तुझको ही समस्त ऐश्वर्यो का देने वाला जानें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वशोश्व्य ऋषिः॥ देवताः—१—२०, २९—३१, ३३ इन्द्रः। २१—२४ पृथुश्रवसः कानीनस्य दानस्तुतिः। २५—२८, ३२ वायुः। छन्दः—१ पाद निचृद् गायत्री। २, १०, १५, २९ विराड् गायत्री। ३, २३ गायत्री। ४ प्रतिष्ठा गायत्री। ६, १३, ३३ निचृद् गायत्री। ३० आर्ची स्वराट् गायत्री। ३१ स्वराड् गायत्री। ५ निचृदुष्णिक्। १६ भुरिगुष्णिक्। ७, २०, २७, २८ निचृद् बृहती। ९, २६ स्वराड् बृहती। ११, १४ विराड् बृहती। २१, २५, ३२ बृहती। ८ विरानुष्टुप्। १८ अनुष्टुप्। १९ भुरिगनुष्टुप्। १२, २२, २४ निचृत् पंक्तिः। १७ जगती॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
'इषां रयीणाम्' दातारम्
पदार्थ
[१] हे (अद्रिवः) = [अत्ति शत्रुम्] शत्रुओं का विध्वंस करनेवाले प्रभो ! (त्वां) = आपको (हि) = ही (सत्यं) = सचमुच (इषां) = उत्तम प्रेरणाओं का (दातारम्) = देनेवाला (विद्म) = जानें। [२] हम आपको ही (रयीणाम्) = सब धनों का (दातारं) = दाता (विद्म) = जानें।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु ही सब धनों को देनेवाले हैं। वे ही इन धनों के सदुपयोग के लिए प्रेरणाओं को प्राप्त कराते हैं।
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal