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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 46 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 46/ मन्त्र 21
    ऋषिः - वशोऽश्व्यः देवता - पृथुश्रवसः कानीतस्य दानस्तुतिः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः

    आ स ए॑तु॒ य ईव॒दाँ अदे॑वः पू॒र्तमा॑द॒दे । यथा॑ चि॒द्वशो॑ अ॒श्व्यः पृ॑थु॒श्रव॑सि कानी॒ते॒३॒॑ऽस्या व्युष्या॑द॒दे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । सः । ए॒तु॒ । यः । ईवत् । आ । अदे॑वः । पू॒र्तम् । आ॒ऽद॒दे । यथा॑ । चि॒त् । वशः॑ । अ॒श्व्यः । पृ॒थु॒ऽश्रव॑सि । कानी॒ते । अ॒स्याः । वि॒ऽउषि॑ । आ॒ऽद॒दे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ स एतु य ईवदाँ अदेवः पूर्तमाददे । यथा चिद्वशो अश्व्यः पृथुश्रवसि कानीते३ऽस्या व्युष्याददे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । सः । एतु । यः । ईवत् । आ । अदेवः । पूर्तम् । आऽददे । यथा । चित् । वशः । अश्व्यः । पृथुऽश्रवसि । कानीते । अस्याः । विऽउषि । आऽददे ॥ ८.४६.२१

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 46; मन्त्र » 21
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Come that sage and scholar of human virtue, just human, not a god, who has received the feel of full and universal spirit of divinity, just as the man in the clutches of karmic sufferance experiences the bliss of divinity in the twilight and beauteous glory of the dawn of universal light and renown.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विद्वानांनी या प्रकारचा उपदेश करावा, ज्यामुळे जीव ईश्वराभिमुख व्हावेत. ॥२१॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    ईश्वरानुगृहीतस्य वर्णनमारभते ।

    पदार्थः

    सः प्रसिद्धो विद्वान् । आ+एतु=आगच्छतु । यः । अदेवः=देवादन्यो मनुष्यः । ईवत्=गमनशीलं सर्वत्र व्याप्तम् । पूर्त्तं=पूर्णमीशम् । आददे=आदत्ते स्वीकरोति यथा चित्=येन प्रकारेण । अश्व्यः=भोक्ता । अश भोजने वशो वशी भूतो जीवात्मा । कानीते=कमनीये । पृथुश्रवसि=महायशसि ईश्वरे । अस्या उषसः । व्युष्टौ=प्रकाशे । आददे ॥२१ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    ईश्वर के कृपापात्र जन का वर्णन यहाँ से आरम्भ करते हैं ।

    पदार्थ

    (सः) प्रसिद्ध-२ विद्वान् (आ+एतु) इतस्ततः उपदेश के लिये आवें और जाएँ (यः+अदेवः) जो देव-भिन्न मनुष्य (ईवत्) व्यापक सर्वत्र गमनशील और (पूर्तम्) परिपूर्ण ईश्वर को (आददे) स्वीकार करते हैं अर्थात् ईश्वर की आज्ञा पर चलते हैं । वे विद्वान् इस प्रकार भ्रमण करें कि (यथा+चित्) जिस प्रकार (अश्व्यः) कर्मफलभोक्ता (वशः) वशीभूत जीवात्मा (कानीते) कमनीय-वाञ्छनीय (पृथुश्रवसि) महायशस्वी ईश्वर के निकट (अस्याः) इस प्रभातवेला के (व्युष्टौ) प्रकाश में (आददे) उसकी महिमा को ग्रहण कर सके ॥२१ ॥

    भावार्थ

    विद्वान् इस प्रकार उपदेश करें, जिससे जीवगण ईश्वराभिमुख हों ॥२१ ॥

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    विषय

    उससे अनेक प्रार्थनाएं।

    भावार्थ

    ( यथा चित्) जिस प्रकार ( अश्व्यः वशः ) अश्वों, सैन्थों वा बलवान् पुरुषों की कामना करने वाला राष्ट्र ( पृथु-श्रवसि ) विस्तृत ज्ञानवान्, यशस्वी ( कानीते ) तेजस्वी पुरुष के अधीन रहकर ( अस्याः वि-उषि ) इस प्रजा की विशेष कामनानुसार ही ( आददे ) राज्य को वश करता है, उसी प्रकार ( यः ) जो (अदेवः) असाधारण पुरुष भी (ईवद्) प्राप्त हुए ( पूर्तम् ) पूर्ण राज्य को ( आददे ) ग्रहण करने में समर्थ होता है। ( सः ) वह ( आ एतु ) हमें प्राप्त हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वशोश्व्य ऋषिः॥ देवताः—१—२०, २९—३१, ३३ इन्द्रः। २१—२४ पृथुश्रवसः कानीनस्य दानस्तुतिः। २५—२८, ३२ वायुः। छन्दः—१ पाद निचृद् गायत्री। २, १०, १५, २९ विराड् गायत्री। ३, २३ गायत्री। ४ प्रतिष्ठा गायत्री। ६, १३, ३३ निचृद् गायत्री। ३० आर्ची स्वराट् गायत्री। ३१ स्वराड् गायत्री। ५ निचृदुष्णिक्। १६ भुरिगुष्णिक्। ७, २०, २७, २८ निचृद् बृहती। ९, २६ स्वराड् बृहती। ११, १४ विराड् बृहती। २१, २५, ३२ बृहती। ८ विरानुष्टुप्। १८ अनुष्टुप्। १९ भुरिगनुष्टुप्। १२, २२, २४ निचृत् पंक्तिः। १७ जगती॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    क्रियाशीलता व 'पूर्तं कर्मों' को करना

    पदार्थ

    [१] प्रभु कहते हैं कि (सः) = वह (आ एतु) = हमारे पास सर्वधा प्राप्त हो (यः) = जो (आ ईवत्) = सर्वथा गतिशील है। अकर्मण्य का प्रभु के समीप प्राप्त होने का अधिकार नहीं। वह प्रभु के समीप प्राप्त हो, जो (अदेवः) = देववृत्ति को पूर्णतया न अपना सकने पर भी (पूर्तम् आददे) = बावड़ी, कुआँ, तालाब व पूजागृह आदि के निर्माण के कार्यों को (आददे) = स्वीकार करता है। कुछ न कुछ लोकहित करनेवाला प्रभु के समीप प्राप्त होता ही है। [२] (यथाचिद्) = जैसे-जैसे (वशः) = इन्द्रियों को वश में करनेवाला और (अश्व्यः) = इन्द्रियाश्वों को प्रशस्त बनानेवाला यह उपासक (पृथुश्रवसि) = विशाल ज्ञानदीप्तिवाली (कानीते = प्रकाश से चमकनेवाली-ज्ञान व स्वास्थ्य के तेज को प्राप्त करानेवाली (अस्याः) = इस (व्युषि) = उषा के उदित होने पर आददे इन पूर्तकर्मों को स्वीकार करता है, उसी अनुपात में यह प्रभु के समीप होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - इस क्रियाशील बनकर लोकहित के कर्मों में प्रवृत्त हों। यही प्रभुप्राप्ति का मार्ग है।

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