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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 46 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 46/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वशोऽश्व्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    दधा॑नो॒ गोम॒दश्व॑वत्सु॒वीर्य॑मादि॒त्यजू॑त एधते । सदा॑ रा॒या पु॑रु॒स्पृहा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दधा॑नः । गोऽमत् । अश्व॑ऽवत् । सु॒ऽवीर्य॑म् । आ॒दि॒त्यऽजू॑तः । ए॒ध॒ते॒ । सदा॑ । रा॒या । पु॒रु॒ऽस्पृहा॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दधानो गोमदश्ववत्सुवीर्यमादित्यजूत एधते । सदा राया पुरुस्पृहा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दधानः । गोऽमत् । अश्वऽवत् । सुऽवीर्यम् । आदित्यऽजूतः । एधते । सदा । राया । पुरुऽस्पृहा ॥ ८.४६.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 46; मन्त्र » 5
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Inspired and energised by Aditya, lord of light and enlightenment, blest with cows, lands and culture, horses, advancement and achievement, bearing courage and creative vitality of high order, he grows and goes forward with cherished wealth, honour and excellence.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे ईश्वरभक्त आहेत त्यांची सदैव वृद्धी होते. याचे कारण असे की, तो भक्त सर्वांवर प्रेम करतो. त्याच्या सुख-दु:खात सम्मिलित होतो. सत्यापासून तो क्षणमात्रही ढळत नाही. त्यामुळे लोकांची सहानुभूती व ईश्वराच्या दयेमुळे तो प्रत्येक दिवशी उन्नत होतो. ॥५॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    आदित्यजूतः=आदित्येनेश्वरेण जूतोऽनुगृहीतः । ईशोपासकः । गोमद्=गोप्रभृतिभिर्दुग्धदातृभिः पशुभिः संयुक्तं धनम् । तथा । अश्ववत्=अश्वादिभिर्वहनसमर्थैश्च पशुभिरुपेतां सम्पत्तिम् । पुनः । सुवीर्य्यञ्च । दधानः । एधते । पुनः । पुरुस्पृहा=बहुभिः स्पृहणीयेन । राया=धनेन । सदा एधते ॥५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (आदित्यजूतः) परमात्मा के अनुग्रहपात्र ईश्वरोपासक जन (गोमत्) गौ, मेषी आदि दुग्ध देनेवाले पशुओं से युक्त धन पाते हैं तथा (अश्ववत्) वहनसमर्थ गज आदि पशुओं से युक्त सम्पत्ति पाते हैं तथा (सुवीर्य्यम्) वीरतोपेत पुत्र पौत्रादिकों से वे युक्त होते हैं और इनके साथ (एधते) जगत् में प्रतिदिन बढ़ते जाते हैं और (पुरुस्पृहा) जिस धन को बहुत आदमी चाहते, वैसे (राया) धन से युक्त हो (सदा) सदा बढ़ते हैं ॥५ ॥

    भावार्थ

    जो ईश्वर के प्रेमी हैं, उनकी वृद्धि सदा होती है । इसमें कारण यह है कि वह भक्त सबसे प्रेम रखता है । सबके सुख-दुःख में सम्मिलित होता, सत्यता से वह अणुमात्र भी डिगता नहीं, अतः लोगों की सहानुभूति और ईश्वर की दया से वह प्रतिदिन बढ़ता जाता है ॥५ ॥

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    विषय

    उससे अनेक प्रार्थनाएं।

    भावार्थ

    और वह पुरुष (गोमत्) गौ आदि पशुओं से समृद्ध ( अश्ववत् ) अश्वादि साधनों से युक्त, ( सु-वीर्यम् ) उत्तम बल को ( दधानः ) धारण करता हुआ ( आदित्य-जूतः ) सूर्यवत् तेजस्वी विद्वान्, अखण्ड शक्ति के धारक और उपासक पुरुषों से प्रेरित ( पुरु-स्पृहा राया ) बहुतों से चाहने योग्य धनैश्वर्य से ( एधते ) वृद्धि को प्राप्त होता है। इति प्रथमो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वशोश्व्य ऋषिः॥ देवताः—१—२०, २९—३१, ३३ इन्द्रः। २१—२४ पृथुश्रवसः कानीनस्य दानस्तुतिः। २५—२८, ३२ वायुः। छन्दः—१ पाद निचृद् गायत्री। २, १०, १५, २९ विराड् गायत्री। ३, २३ गायत्री। ४ प्रतिष्ठा गायत्री। ६, १३, ३३ निचृद् गायत्री। ३० आर्ची स्वराट् गायत्री। ३१ स्वराड् गायत्री। ५ निचृदुष्णिक्। १६ भुरिगुष्णिक्। ७, २०, २७, २८ निचृद् बृहती। ९, २६ स्वराड् बृहती। ११, १४ विराड् बृहती। २१, २५, ३२ बृहती। ८ विरानुष्टुप्। १८ अनुष्टुप्। १९ भुरिगनुष्टुप्। १२, २२, २४ निचृत् पंक्तिः। १७ जगती॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    आदित्यजूतः

    पदार्थ

    [१] (आदित्यजूतः) = सूर्य से प्रेरणा को प्राप्त करनेवाला व्यक्ति (गोमत्) = प्रशस्त ज्ञानेन्द्रियोंवाली, (अश्ववत्) = प्रशस्त कर्मन्द्रियोंवाली (सुवीर्यम्) = उत्तम शक्ति को (दधानः) = धारण करता है। सूर्य की तरह निरन्तर क्रियाशील जीवन बिताने से इन्द्रियाँ उत्तम शक्तिसम्पन्न बनती हैं। [२] यह व्यक्ति (सदा) = सदा (पुरुस्पृहा) = बहुतों से चाहने योग्य (राया) = ऐश्वर्य से (एधते) = बढ़ता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- सूर्य से प्रेरणा को प्राप्त करके निरन्तर क्रियाशील बननेवाला व्यक्ति प्रशस्त इन्द्रियों को, वीर्य (शक्ति) को तथा स्पृहणीय धन को प्राप्त करता है।

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