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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 46 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 46/ मन्त्र 29
    ऋषिः - वशोऽश्व्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    अध॑ प्रि॒यमि॑षि॒राय॑ ष॒ष्टिं स॒हस्रा॑सनम् । अश्वा॑ना॒मिन्न वृष्णा॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अध॑ । प्रि॒यम् । इ॒षि॒राय॑ । ष॒ष्टिम् । स॒हस्रा॑ । अ॒स॒न॒म् । अश्वा॑नाम् । इत् । न । वृष्णा॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अध प्रियमिषिराय षष्टिं सहस्रासनम् । अश्वानामिन्न वृष्णाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अध । प्रियम् । इषिराय । षष्टिम् । सहस्रा । असनम् । अश्वानाम् । इत् । न । वृष्णाम् ॥ ८.४६.२९

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 46; मन्त्र » 29
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 6; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    And I have received sixty thousand gifts of value dear to the strong and ambitious, like horses of the most virile breed dear to the warriors.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ऐश्वर्यवान इन्द्राचे (मानवाचे) ऐश्वर्य गरजू व अभावग्रस्ताच्या आवश्यकतेच्या पूर्तीसाठीच संचित केले पाहिजे. ॥२९॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अध) अनन्तर मैं इन्द्र, वैभवयुक्त व्यक्ति (वृष्णाम्) बलशाली (अश्वानाम्) अश्वों के (न) तुल्य बलशाली (सहस्रा षष्टिम्) साठ सहस्र धनों से विभिन्न प्रकार के भौतिक, शारीरिक, आधिभौतिक, आध्यात्मिक इत्यादि पदार्थों से निर्मित ऐश्वर्य को, जो (इषिराय) इच्छुक, अभावग्रस्त के लिए (प्रियम्) अभीष्ट है, उसे मैं (असनम्) सेवन करूँ॥२९॥

    भावार्थ

    इन्द्र का ऐश्वर्य, अभिलाषितों व अभावग्रस्तों की आवश्यकता की पूर्ति के लिये ही संचित हो॥२९॥

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    विषय

    उसका वैभव।

    भावार्थ

    मैं ( इषिराय ) इच्छा और प्रेरणा करने वाले विद्वान् वीर पुरुष के हितार्थ ( वृष्णाम् अश्वानाम् ) बलवान् घोड़ों के ( इत् न ) भी समान बलवान् आशुगामी, ( षष्टिं सहस्रा ) ६० हजार ( असनम् ) प्रदान करूं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वशोश्व्य ऋषिः॥ देवताः—१—२०, २९—३१, ३३ इन्द्रः। २१—२४ पृथुश्रवसः कानीनस्य दानस्तुतिः। २५—२८, ३२ वायुः। छन्दः—१ पाद निचृद् गायत्री। २, १०, १५, २९ विराड् गायत्री। ३, २३ गायत्री। ४ प्रतिष्ठा गायत्री। ६, १३, ३३ निचृद् गायत्री। ३० आर्ची स्वराट् गायत्री। ३१ स्वराड् गायत्री। ५ निचृदुष्णिक्। १६ भुरिगुष्णिक्। ७, २०, २७, २८ निचृद् बृहती। ९, २६ स्वराड् बृहती। ११, १४ विराड् बृहती। २१, २५, ३२ बृहती। ८ विरानुष्टुप्। १८ अनुष्टुप्। १९ भुरिगनुष्टुप्। १२, २२, २४ निचृत् पंक्तिः। १७ जगती॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    वेदवचन + शक्तिसिक्त इन्द्रियाँ

    पदार्थ

    [१] (अध) = सब (इषिराय) = उस प्रेरक प्रभु के लिए (प्रियं) = प्रिय (षष्टिं सहस्त्रा) = आध्यात्मिक- आधिभौतिक व आधिदैविक अर्थभेद से २० हज़ार होते हुए भी जो ६० हज़ार हैं उन वेदवचनों को असनम् = मैं प्राप्त करूँ। [२] (न) = इसी प्रकार (इत्) = निश्चय से (वृष्णाम् अश्वानाम्) = शक्ति का सेचन करनेवाले इन्द्रियाश्वों का ग्रहण करूँ।

    भावार्थ

    भावार्थ- वेदवचनों का ग्रहण करते हुए हम प्रभु के प्रिय बनें। शक्तिसिक्त इन्द्रियों को प्राप्त करें।

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