ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 46/ मन्त्र 17
म॒हः सु वो॒ अर॑मिषे॒ स्तवा॑महे मी॒ळ्हुषे॑ अरंग॒माय॒ जग्म॑ये । य॒ज्ञेभि॑र्गी॒र्भिर्वि॒श्वम॑नुषां म॒रुता॑मियक्षसि॒ गाये॑ त्वा॒ नम॑सा गि॒रा ॥
स्वर सहित पद पाठम॒हः । सु । वः॒ । अर॑म् । इ॒षे॒ । स्तवा॑महे । मी॒ळ्हुषे॑ । अ॒र॒म्ऽग॒माय । जग्म॑ये । य॒ज्ञेभिः॑ । गीः॒ऽभिः । वि॒श्वऽम॑नुषाम् । म॒रुता॑म् । इ॒य॒क्ष॒सि॒ । गाये॑ । त्वा॒ । नम॑सा । गि॒रा ॥
स्वर रहित मन्त्र
महः सु वो अरमिषे स्तवामहे मीळ्हुषे अरंगमाय जग्मये । यज्ञेभिर्गीर्भिर्विश्वमनुषां मरुतामियक्षसि गाये त्वा नमसा गिरा ॥
स्वर रहित पद पाठमहः । सु । वः । अरम् । इषे । स्तवामहे । मीळ्हुषे । अरम्ऽगमाय । जग्मये । यज्ञेभिः । गीःऽभिः । विश्वऽमनुषाम् । मरुताम् । इयक्षसि । गाये । त्वा । नमसा । गिरा ॥ ८.४६.१७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 46; मन्त्र » 17
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 4; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 4; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
For the sake of ample food and energy for you all, O people, we adore, with holy yajnic hymns, the great, generous, all round mover and obliging visitor, Indra, loved of all people in general and vibrant divines in particular. You love to be with us, O lord, and I celebrate and felicitate you with hymns and homage.
मराठी (1)
भावार्थ
जो परमपूज्य आहे त्याच ईश्वराचे सर्वांनी गान गावे ॥१७॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे मनुष्याः ! वयम् । मीढुषे=कल्याणानां सेक्त्रे । अरंगमाय=अलंगन्त्रे । जग्मये=गमनशीलाय । इन्द्राय स्तवामहे । सर्वत्र कर्मणि चतुर्थी । स्तुतः सन् सः । महः=महान् देवः । वः=युष्मान् प्रति । अरंगमनम् । सु=सुष्ठु । इषे=इच्छेत् । हे भगवन् ! त्वम् । विश्वमनुषां=विश्वेषां मनुष्याणाम् । मरुताम्=मरुत्प्रभृतीनां देवानाम् । मध्ये । इयक्षसि=त्वमेव इज्यसे । ईदृशं त्वा=त्वाम् । यज्ञेभिः । गीर्भिः । नभसा गिरा च । गाये ॥१७ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
हे मनुष्यों ! हम मनुष्य उस इन्द्र की (स्तवामहे) स्तुति करते हैं, जो (मीढुषे) सम्पूर्ण कल्याणों की वर्षा करनेवाला है, पुनः (अरंगमाय) जो अतिशय भ्रमणकारी है और (जग्मये) भक्तों के निकट जाना जिसका स्वभाव है । हे भगवन् तू (विश्वमनुषाम्) सकल मनुष्यजातियों में और (मरुताम्) वायु आदि देवजातियों में (इयक्षसि) पूज्य और यजनीय है । हे ईश (यज्ञेभिः) यज्ञों से (गीर्भिः) निज-२ भाषाओं से (नमसा) नमस्कार से (गिरा) स्तुति से (त्वा) तुझको ही (गाये) मैं गाता हूँ, हम सब गाते हैं ॥१७ ॥
भावार्थ
उसी ईश्वर का सब गान करें, जो परमपूज्य है ॥१७ ॥
विषय
उससे अनेक प्रार्थनाएं।
भावार्थ
हे विद्वान् लोगो ! हम लोग ( वः ) आप लोगों के प्रति ( अरंगमाय ) प्राप्त होने योग्य ( जग्मये ) ज्ञानवान्, सर्वत्र गत, (मीढुषे) सुखों के वर्षक उस प्रभु की ( यज्ञेभिः गीर्भिः ) यज्ञों और वेद-वाणियों से ( स्तवामहे ) स्तुति करें, उसका उपदेश करें। वह हमें और हम उस ( महः ) पूज्य को ही ( अरम् ) बहुत अधिक ( सु इषे ) उत्तम रीति से चाहें। हे प्रभो ! तू ( विश्व-मनुषां मरुतां ) सब मननशील मनुष्यों को ( इयक्षसि ) सब कुछ देता है। ( त्वा ) तेरी ही मैं ( नमसा गिरा ) विनययुक्त वाणी से ( गाये ) स्तुति करता हूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वशोश्व्य ऋषिः॥ देवताः—१—२०, २९—३१, ३३ इन्द्रः। २१—२४ पृथुश्रवसः कानीनस्य दानस्तुतिः। २५—२८, ३२ वायुः। छन्दः—१ पाद निचृद् गायत्री। २, १०, १५, २९ विराड् गायत्री। ३, २३ गायत्री। ४ प्रतिष्ठा गायत्री। ६, १३, ३३ निचृद् गायत्री। ३० आर्ची स्वराट् गायत्री। ३१ स्वराड् गायत्री। ५ निचृदुष्णिक्। १६ भुरिगुष्णिक्। ७, २०, २७, २८ निचृद् बृहती। ९, २६ स्वराड् बृहती। ११, १४ विराड् बृहती। २१, २५, ३२ बृहती। ८ विरानुष्टुप्। १८ अनुष्टुप्। १९ भुरिगनुष्टुप्। १२, २२, २४ निचृत् पंक्तिः। १७ जगती॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
मीढुषे- अरंगमाय - जग्मये
पदार्थ
[१] हे इन्द्र ! (महः वः) = महान् आपके (अरं) = गमन को [ॠ गतौ ] (सु इषे) = सम्यक् चाहता हूँ। इसीलिए (मीढुषे) = सुखों के वर्षक, (अरंगमाय) = पर्याप्त गमनवाले-सर्वत्र गमनवाले, (जग्मये) = सदा क्रियाशील [स्वाभाविकी ज्ञान-बल-क्रिया च] उस प्रभु के लिए (स्तवामहे) = हम स्तवन करते हैं। [२] हे प्रभो! आप (यज्ञेभिः) = यज्ञों के द्वारा और (गीर्भिः) = ज्ञान की वाणियों के द्वारा (विश्वमनुषां) = सब मननशील मरुतां मनुष्यों के (इयक्षसि) = सम्पर्कवाले होते हैं [यज संगतिकरणे] । ये मननशील पुरुष यज्ञों व ज्ञान की वाणियों के द्वारा आपको प्राप्त होते हैं। हे प्रभो ! मैं (नमसा) = नमन के साथ (गिरा) = स्तुतिवाणियों से गाये आपका गायन करता हूँ।
भावार्थ
भावार्थ- मैं नमन यज्ञ व ज्ञान की वाणियों के द्वारा प्रभु का स्तवन करता हूँ। प्रभु ही हमें सब सुखों का वर्षण प्राप्त कराते हैं।
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