ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 46/ मन्त्र 4
सु॒नी॒थो घा॒ स मर्त्यो॒ यं म॒रुतो॒ यम॑र्य॒मा । मि॒त्रः पान्त्य॒द्रुह॑: ॥
स्वर सहित पद पाठसु॒ऽनी॒थः । घ॒ । सः । मर्त्यः॑ । यम् । म॒रुतः॑ । यम् । अ॒र्य॒मा । मि॒त्रः । पान्ति॑ । अ॒द्रुहः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सुनीथो घा स मर्त्यो यं मरुतो यमर्यमा । मित्रः पान्त्यद्रुह: ॥
स्वर रहित पद पाठसुऽनीथः । घ । सः । मर्त्यः । यम् । मरुतः । यम् । अर्यमा । मित्रः । पान्ति । अद्रुहः ॥ ८.४६.४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 46; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
True it is that that man is morally right, well guided and secure whom the Maruts, vibrant powers of defence and protection, Aryama, power of right conduct and justice, and Mitra, power of love and enlightenment, all free from hate and jealousy, lead and protect on the right path.
मराठी (1)
भावार्थ
ज्याच्यावर ईश्वराची व लोकांची कृपा असेल तोच श्रेष्ठ पुरुष असतो. त्यासाठी प्रत्येक माणसाने शुभ कर्मात प्रवृत्त झाले पाहिजे. शुभ कर्माने शत्रूही प्रसन्न होतात. ॥४॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
सः मर्त्यः=स मनुष्यः । सुनीथः=सुयज्ञः सुनीयमानो वा भवति घेति प्रसिद्धौ । यं मरुतः=सेनाः । अद्रुहः सन्तः । पान्ति=रक्षन्ति । यम् । अर्य्यमा=श्रेष्ठो जनः पाति । मित्रो ब्राह्मणः पाति ॥४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(घ) यह विषय सर्वत्र प्रसिद्ध है कि (सः+मर्त्यः) वह मनुष्य (सुनीथः) सुयज्ञ होता है अर्थात् उस मनुष्य के सकल वैदिक या लौकिक कर्म पुष्पित और सुफलित होते हैं, यद्वा वह अच्छे प्रकार जगत् में चलाया जाता है, (यम्) जिसकी (मरुतः) राज्यसेनाएँ (अद्रुहः) द्रोहरहित होकर (पान्ति) रक्षा करती हैं, (यम्+अर्यमा) जिसकी रक्षा श्रेष्ठ पुरुष करते हैं, (मित्रः) ब्राह्मण=मित्रभूत ब्रह्मवित् पुरुष जिसकी रक्षा करते हैं ॥४ ॥
भावार्थ
जिसके ऊपर ईश्वर तथा लोक की कृपा हो, वही श्रेष्ठ पुरुष है । अतः प्रत्येक मनुष्य को शुभकर्म में प्रवृत्त होना चाहिये । शुभकर्मों से शत्रु भी प्रसन्न रहते हैं ॥४ ॥
विषय
उससे अनेक प्रार्थनाएं।
भावार्थ
( यं ) जिस मनुष्य को ( मरुतः ) विद्वान् लोग ( यम् अर्यमा ) जिसको न्यायकारी पुरुष और ( मित्रः ) स्नेहवान् जन ( अद्रुहः ) द्रोह रहित होकर ( पान्ति ) रक्षा करते हैं ( सः मर्त्यः ) वह मनुष्य ( घ ) अवश्य ( सुनीथः ) शुभ मार्ग में जाता है, उत्तम वाणी प्राप्त करता और उत्तम चक्षुष्मान् है। वही उत्तम यज्ञ करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वशोश्व्य ऋषिः॥ देवताः—१—२०, २९—३१, ३३ इन्द्रः। २१—२४ पृथुश्रवसः कानीनस्य दानस्तुतिः। २५—२८, ३२ वायुः। छन्दः—१ पाद निचृद् गायत्री। २, १०, १५, २९ विराड् गायत्री। ३, २३ गायत्री। ४ प्रतिष्ठा गायत्री। ६, १३, ३३ निचृद् गायत्री। ३० आर्ची स्वराट् गायत्री। ३१ स्वराड् गायत्री। ५ निचृदुष्णिक्। १६ भुरिगुष्णिक्। ७, २०, २७, २८ निचृद् बृहती। ९, २६ स्वराड् बृहती। ११, १४ विराड् बृहती। २१, २५, ३२ बृहती। ८ विरानुष्टुप्। १८ अनुष्टुप्। १९ भुरिगनुष्टुप्। १२, २२, २४ निचृत् पंक्तिः। १७ जगती॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
सुनीथः [मर्त्यः]
पदार्थ
[१] (सः मर्त्यः) = वह मनुष्य (घा) = निश्चय से (सुनीथः) = उत्तम यज्ञोंवाला या उत्तम मार्गवाला होता है, (यं) = जिसको (मरुतः) = प्राण (पान्ति) = रक्षित करते हैं, अर्थात् प्राणसाधना करता हुआ जो मनुष्य अपने अन्दर शक्ति की उर्ध्व गतिवाला होता है, वह निश्चय से अपना रक्षण कर पाता है-उसका शरीर नीरोग बन जाता है। [२] वह मनुष्य जीवन में उत्तम प्रणयन [मार्ग] वाला होता है (यम्) = जिसको (अर्यमा) = [अरीन् यच्छति ] संयम की देवता तथा (मित्रः) = स्नेह की देवता तथा [वरुण:] निर्देषता का भाव (अद्रुहः) = सब प्रकार के द्रोह से रहित हुए हुए [पान्ति = ] रक्षित करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ-रोगों व वासनाओं से रक्षण का मार्ग यही है कि हम प्राणसाधना में प्रवृत्त हों तथा स्नेह, संयम व निर्देषता का पोषण करने के लिए यत्नशील हों।
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