ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 46/ मन्त्र 13
स नो॒ वाजे॑ष्ववि॒ता पु॑रू॒वसु॑: पुरस्था॒ता म॒घवा॑ वृत्र॒हा भु॑वत् ॥
स्वर सहित पद पाठसः । नः॒ । वाजे॑षु । अ॒वि॒ता । पु॒रु॒ऽवसुः॑ । पु॒रः॒ऽस्था॒ता । म॒घऽवा॑ । वृ॒त्र॒ऽहा । भु॒व॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
स नो वाजेष्वविता पुरूवसु: पुरस्थाता मघवा वृत्रहा भुवत् ॥
स्वर रहित पद पाठसः । नः । वाजेषु । अविता । पुरुऽवसुः । पुरःऽस्थाता । मघऽवा । वृत्रऽहा । भुवत् ॥ ८.४६.१३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 46; मन्त्र » 13
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
That lord Indra, haven and home of the world, ever present everywhere, we need and invoke. That commander of wealth and power, dispeller of darkness and destroyer of evil, may, we pray, be our protector and promoter in the material, moral and spiritual struggles of our life.
मराठी (1)
भावार्थ
तोच संकटातही रक्षक आहे. तोच धनाचा स्वामी आहे. त्याचीच स्तुती प्रार्थना करा. ॥१३॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
स इन्द्रवाच्येश्वरः । नोऽस्माकम् । वाजेषु= सांसारिकाध्यात्मिकादिसंग्रामेषु । अविता=रक्षिता । भुवत्=भवतु । यः पुरूवसुः=बहुधनः । पुनः । पुरः स्थाता=सर्वेषामग्रे स्थाता=विद्यमानः । पुनः । मघवा=धनस्वामी । पुनः । वृत्रहा=निखिलविघ्नप्रहारी वर्तते ॥१३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(सः) वह इन्द्र नामक ईश्वर (नः) हमारे (वाजेषु) सांसारिक और आध्यात्मिक आदि विविध संग्रामों में (अविता) रक्षक (भुवत्) हो, जिसके (पुरूवसुः) बहुत धन हैं, (पुरः स्थाता) जो सबके आगे खड़ा होनेवाला है अर्थात् जो सर्वत्र विद्यमान है । (मघवा) जिसका नाम ही धनवान् धनस्वामी है, जो (वृत्रहा) निखिल विघ्नों का प्रहारी है, वह हमारा रक्षक और पूज्य होवे ॥१३ ॥
भावार्थ
वही संकट में भी रक्षक है, वही धनस्वामी है । उसी की स्तुति, प्रार्थना करो ॥१३ ॥
विषय
उससे अनेक प्रार्थनाएं।
भावार्थ
( सः ) वह ( वाजेषु ) संग्रामों, बलों में ( पुरु-वसुः ) बहुत धनों और प्रजाओं का स्वामी ( पुरः स्थाता ) अग्र पद पर स्थिर रहने वाला, ( मघवा ) धनैश्वर्य का स्वामी ( वृत्रहा ) दुष्टों और विघ्नों का नाशकारी ( भुवत् ) होता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वशोश्व्य ऋषिः॥ देवताः—१—२०, २९—३१, ३३ इन्द्रः। २१—२४ पृथुश्रवसः कानीनस्य दानस्तुतिः। २५—२८, ३२ वायुः। छन्दः—१ पाद निचृद् गायत्री। २, १०, १५, २९ विराड् गायत्री। ३, २३ गायत्री। ४ प्रतिष्ठा गायत्री। ६, १३, ३३ निचृद् गायत्री। ३० आर्ची स्वराट् गायत्री। ३१ स्वराड् गायत्री। ५ निचृदुष्णिक्। १६ भुरिगुष्णिक्। ७, २०, २७, २८ निचृद् बृहती। ९, २६ स्वराड् बृहती। ११, १४ विराड् बृहती। २१, २५, ३२ बृहती। ८ विरानुष्टुप्। १८ अनुष्टुप्। १९ भुरिगनुष्टुप्। १२, २२, २४ निचृत् पंक्तिः। १७ जगती॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
पुरुवसुः-पुर: स्थाता
पदार्थ
[१] (सः) = वे प्रभु ही (वाजेषु) = संग्रामों में (नः अविता) = हमारे रक्षक हैं। (पुरुवसुः) = वे प्रभु पालक व पूरक धनोंवाले हैं। (पुर: स्थाता) = हमारे आगे ठहरनेवाले हैं-हमारे लिए नेतृत्व को देनेवाले हैं। [२] वे (मघवा) = परमैश्वर्यशाली प्रभु (वृत्रहा) = वासनाओं को नष्ट करनेवाले (भुवत्) = हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु संग्रामों में हमारे रक्षक हैं, पालक व पूरक धनों को प्राप्त कराते हैं-हमारे मार्गदर्शक हैं - हमारी वासनाओं को विनष्ट करनेवाले हैं।
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