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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 46 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 46/ मन्त्र 10
    ऋषिः - वशोऽश्व्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    ग॒व्यो षु णो॒ यथा॑ पु॒राश्व॒योत र॑थ॒या । व॒रि॒व॒स्य म॑हामह ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ग॒व्यः॑ । सु । नः॒ । यथा॑ । पु॒रा । अ॒श्व॒ऽया । उ॒त । र॒थ॒ऽया । व॒रि॒व॒स्य । म॒हा॒ऽम॒ह॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    गव्यो षु णो यथा पुराश्वयोत रथया । वरिवस्य महामह ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    गव्यः । सु । नः । यथा । पुरा । अश्वऽया । उत । रथऽया । वरिवस्य । महाऽमह ॥ ८.४६.१०

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 46; मन्त्र » 10
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 2; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Lord greatest of the great, Indra, come now as ever before and bring us wealth of lands and cows and discipline of the mind and senses, wealth of horses, progress and meaningful attainments, and scientific transports and spiritual adventures of the soul in meditation and yajnic sessions.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ईश्वराजवळ सर्व पदार्थ आत्यंतिक आहेत, अपरिमित आहेत. त्याची महानता माणसाची बुद्धी जाणू शकत नाही. त्याच्याजवळ किती धन आहे त्याची संख्या मोजता येत नाही किंवा मानवी मन त्याच्यापर्यंत पोचू शकत नाही. त्यासाठी त्याला महान वगैरे म्हटले जाते. या ऋचेचे तात्पर्य हे की, जेव्हा तो इतका महान आहे तेव्हा त्याला सोडून दुसऱ्याची याचना करू नका. गाई, अश्व व रथ इत्यादी पदार्थ गृहस्थाश्रमासाठी परम उपयोगी आहेत. त्यासाठी, त्यांच्या प्राप्तीसाठी ही प्रार्थना केली जाते. ॥१०॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे महामह ! महतां महन् ! हे श्रेष्ठानां मध्ये श्रेष्ठ ! यथा पुरा=पूर्ववत् । नोऽस्माकम् । गव्या=गवेच्छया । उत । अश्वया=अश्वेच्छया उत । रथया=रथेच्छया । सु=सुष्ठु । वरिवस्य=परिचर=आगच्छ ॥१० ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (महामह) हे महानों में महान्, हे श्रेष्ठों में श्रेष्ठ, हे परमपूज्य, हे महाधनेश्वर जगदीश ! (यथा+पुरा) पूर्ववत् (उ) इस समय भी (नः) हम उपासकों को (गव्या) गो धन देने की इच्छा से (उत) और (अश्वया) घोड़े देने की इच्छा से (रथया) रथ देने की इच्छा से (वरिवस्य) यहाँ कृपा कर आवें ॥१० ॥

    भावार्थ

    ईश्वर में सब पदार्थ अतिशय हैं । वह कितना महान् है, यह मनुष्य की बुद्धि में नहीं आ सकता । उसके निकट कितना धन है, उसकी न तो संख्या हो सकती और न मानवमन ही वहाँ तक पहुँच सकता है, अतः उसके साथ महान् आदि शब्द लगाए जाते हैं । इस ऋचा से यह शिक्षा होती है कि जब वह इतना महान् है, तब उसको छोड़कर दूसरों से मत माँगो । गौ, अश्व और रथ आदि पदार्थ गृहस्थाश्रम के लिये परमोपयोगी हैं, अतः इनकी प्राप्ति के लिये बहुधा प्रार्थना आती है ॥१० ॥

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    विषय

    उससे अनेक प्रार्थनाएं।

    भावार्थ

    हे ( महामह ) महा धनाधिपते प्रभो ( यथा पुरा ) पूर्व कल्पवत् तू ( नः ) हमें ( गव्यो ) गौओं ( अश्वया रथया ) अश्वों और रथों से ( वरिवस्य ) युक्त कर। इति द्वितीयो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वशोश्व्य ऋषिः॥ देवताः—१—२०, २९—३१, ३३ इन्द्रः। २१—२४ पृथुश्रवसः कानीनस्य दानस्तुतिः। २५—२८, ३२ वायुः। छन्दः—१ पाद निचृद् गायत्री। २, १०, १५, २९ विराड् गायत्री। ३, २३ गायत्री। ४ प्रतिष्ठा गायत्री। ६, १३, ३३ निचृद् गायत्री। ३० आर्ची स्वराट् गायत्री। ३१ स्वराड् गायत्री। ५ निचृदुष्णिक्। १६ भुरिगुष्णिक्। ७, २०, २७, २८ निचृद् बृहती। ९, २६ स्वराड् बृहती। ११, १४ विराड् बृहती। २१, २५, ३२ बृहती। ८ विरानुष्टुप्। १८ अनुष्टुप्। १९ भुरिगनुष्टुप्। १२, २२, २४ निचृत् पंक्तिः। १७ जगती॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    गव्या+अश्वया+रथया

    पदार्थ

    [१] हे (महामह) = महान् प्रकाशवाले प्रभो! आप (नः) = हमें (यथा पुरा) = जैसे पहले युगों में उसी प्रकार (गव्या) = ज्ञानेन्द्रिय समूह को देने की कामना से, (उ) = और (अश्वया) = उत्तम कर्मेन्द्रियों को प्राप्त कराने की कामना से (उत) = और (रथया) = उत्तम शरीररथ को प्राप्त कराने की कामना से (सुवरिवस्य) = सम्यक् आदृत करिये। [२] प्रभुद्वारा उत्तम ज्ञानेन्द्रियों, उत्तम कर्मेन्द्रियों व उत्तम शरीररथ का प्राप्त कराया जाना ही हमारा महान् आदर है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु हमें उत्तम ज्ञानेन्द्रियाँ, उत्तम कर्मेन्द्रियाँ व उत्तम शरीररूप रथ प्राप्त कराते हैं। इनका ठीक प्रयोग हमें भी महान् प्रकाशवाला बनाता है।

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