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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 46 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 46/ मन्त्र 11
    ऋषिः - वशोऽश्व्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराड्बृहती स्वरः - मध्यमः

    न॒हि ते॑ शूर॒ राध॒सोऽन्तं॑ वि॒न्दामि॑ स॒त्रा । द॒श॒स्या नो॑ मघव॒न्नू चि॑दद्रिवो॒ धियो॒ वाजे॑भिराविथ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न॒हि । ते॒ । शू॒र॒ । राध॑सः । अन्त॑म् । वि॒न्दामि॑ । स॒त्रा । द॒श॒स्य । नः॒ । म॒घ॒ऽव॒न् । नु । चि॒त् । अ॒द्रि॒ऽवः॒ । धियः॑ । वाजे॑भिः । आ॒वि॒थ॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नहि ते शूर राधसोऽन्तं विन्दामि सत्रा । दशस्या नो मघवन्नू चिदद्रिवो धियो वाजेभिराविथ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नहि । ते । शूर । राधसः । अन्तम् । विन्दामि । सत्रा । दशस्य । नः । मघऽवन् । नु । चित् । अद्रिऽवः । धियः । वाजेभिः । आविथ ॥ ८.४६.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 46; मन्त्र » 11
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O lord generous and brave, I do not find the end and bounds of your gifts of wealth and competence. Lord of wealth, wisdom and excellence, wielder of the thunderbolt of justice and power, grant us the gifts of material, mental and spiritual wealth, and protect and promote our mind and senses with speed and energy for progress in action and attainment.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    त्याच्या धनाचा अंत नाही. ईश्वराजवळ आम्ही उपासकांनी आपल्या इच्छा प्रकट कराव्या व त्याच्याच इच्छेवर सोडावे. ॥११॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमर्थं द्रढयति ।

    पदार्थः

    हे शूर=महावीर महेश ! ते=तव । राधसः=राधनीयस्य धनस्य । अन्तम् । अहमुपासकः । सत्रा=सत्यम् । नहि । विन्दामि । लभे । अतः । नोऽस्मभ्यम् । हे मघवन् महा धनेश ! हे अद्रिवः=महादण्डधर ! नूचित् क्षिप्रमेव । दशस्य=देहि धनम् । पुनः । वाजेभिर्ज्ञानैर्धनैश्च । अस्माकं धियः कर्माणि । आविथ=रक्ष ॥११ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    पुनः उसी अर्थ को दृढ़ करते हैं ।

    पदार्थ

    (शूर) हे महावीर महेश ! (ते) तेरे (राधसः) पूज्य धन का (अन्तम्) अन्त में उपासक (सत्रा) सत्य ही (नहि+विन्दामि) नहीं पाता हूँ, इस कारण (मघवन्) हे महा धनेश (अद्रिवः) हे महादण्डधर इन्द्र ! (नू+चित्) शीघ्र ही (नः) हमको (दशस्य) दान दे तथा (वाजेभिः) ज्ञानों और धनों से हमारे (धियः) कर्मों की (आविथ) रक्षा करो ॥११ ॥

    भावार्थ

    इसमें सन्देह नहीं कि उसके धन का अन्त नहीं है । ईश्वर के समान हम उपासक उससे आवश्यकता निवेदन करें और उसी की इच्छा पर छोड़ देवें ॥११ ॥

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    विषय

    उससे अनेक प्रार्थनाएं।

    भावार्थ

    हे ( शूर ) शूरवीर ! दुष्टों के नाश करने हारे प्रभो ! ( सत्रा ) सचमुच मैं ( ते राधसः अन्तं नहि विन्दामि ) तेरे धनैश्वर्य के अन्त को नहीं पाता हूं। हे ( मघवन् ) ऐश्वर्यवन् ! हे ( अद्रिवः ) बलशालिन् ! ( नः ) हमें ( दशस्य ) प्रदान कर ( नू चित् ) और शीघ्र ही, ( वाजेभिः ) बलों, ज्ञानों और ऐश्वर्यों से ( नः आविथ ) हमारी रक्षा कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वशोश्व्य ऋषिः॥ देवताः—१—२०, २९—३१, ३३ इन्द्रः। २१—२४ पृथुश्रवसः कानीनस्य दानस्तुतिः। २५—२८, ३२ वायुः। छन्दः—१ पाद निचृद् गायत्री। २, १०, १५, २९ विराड् गायत्री। ३, २३ गायत्री। ४ प्रतिष्ठा गायत्री। ६, १३, ३३ निचृद् गायत्री। ३० आर्ची स्वराट् गायत्री। ३१ स्वराड् गायत्री। ५ निचृदुष्णिक्। १६ भुरिगुष्णिक्। ७, २०, २७, २८ निचृद् बृहती। ९, २६ स्वराड् बृहती। ११, १४ विराड् बृहती। २१, २५, ३२ बृहती। ८ विरानुष्टुप्। १८ अनुष्टुप्। १९ भुरिगनुष्टुप्। १२, २२, २४ निचृत् पंक्तिः। १७ जगती॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    धन+ शक्ति+बुद्धि

    पदार्थ

    [१] हे (शूर) = शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले प्रभो! (ते) = आपके (राधसः) = ऐश्वर्य के (अन्तं) = अन्त को (सत्रा) = सचमुच (न हि विन्दामि) = नहीं प्राप्त कर सकता हूँ-आपका ऐश्वर्य सचमुच अनन्त है। हे (मघवन्) = ऐश्वर्यशालिन् प्रभो ! (नः) = हमारे लिए भी आवश्यक धनों को (नूचित्) = शीघ्र ही (दशस्य) = दीजिए। [२] हे (अद्रिवः) = आदरणीय प्रभो! आप ही इन आवश्यक धनों को देकर (वाजेभिः) = शक्तियों के साथ (धियः) = हमारी बुद्धियों को व कर्मों को (आविथ) = रक्षित करते हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- वे अनन्त ऐश्वर्यवाले प्रभु हमें जीवनयात्रा के लिए आवश्यक धनों को देकर हमारी शक्तियों व बुद्धियों का रक्षण करते हैं।

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